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जो बच्चे अकेले खेलते हैं

jo bachche akele khelte hain

आशुतोष दुबे

आशुतोष दुबे

जो बच्चे अकेले खेलते हैं

आशुतोष दुबे

और अधिकआशुतोष दुबे

    एकांत उनके कोने घिसकर उन्हे एक गेंद में बदल देता है।

    अपनी ऊब में टप्पे खाते हुए अंततः वे फ़र्श पर निश्चल

    पड़े रहते हैं। कभी-कभी वे ऐसे काम करते नज़र आते हैं

    जो उन्हें अपनी ढलती उमर में करने होंगे, जैसे पड़े-पड़े

    छत की ओर देखते रहना, बुदबुदाना, जम्हाई लेना, ऊँघना और

    सो पाना।

    वे बंद दरवाज़ों पर दस्तक देते हैं। पूछते हैं—कौन है? जवाब

    देते है—मैं हूँ। किताबों में छपी तस्वीरें उनसे अपने दुख-

    सुख की बातें करती हैं। वे आवाज़ देते हैं और देर तक अपनी आवाज़

    को देखते हैं। अपनी शक्ल से ऊबकर वे

    आईने में मुँह चिढ़ाते हैं। वह इंतज़ार का स्केच होता है जिसे

    वे पेंसिल से दीवार पर बनाते हैं और जिसके लिए उन्हें डाँट पड़ती है।

    अकेले खेलने वाले बच्चों में खिलौने की आँखें उतरने

    लगती हैं। काठ के घोड़े जब उन्हें अपने साथ आश्चर्य लोक की

    यात्रा पर ले जाते हैं, तो उनका कुछ वहीं छूट जाता है। काम

    से लौटकर उनके माँ-बाप उन्हें बार-बार ग़ौर से देखते-

    टटोलते हैं पर उन्हें पता नहीं चल पाता है कि अकेले खेलने

    वाले बच्चों में कौन-सी क़सर अपना घर बनाती जा रही है।

    तस्वीरों के तमाम टुकड़ों को तरतीब देकर एक मुकम्मिल

    तस्वीर बनाने में लगे अकेले खेलने वाले बच्चे उस

    दस्तक की लगातार प्रतीक्षा करते हैं, जब उन्हें अपने बचपन

    की तस्वीर का कोई टुकड़ा मिल जाएगा और जो उन्हें

    मुकम्मिल करेगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : असंभव सारांश (पृष्ठ 93)
    • रचनाकार : आशुतोष दुबे
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2002

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