यहाँ चाय की प्यालियों में
अपनी पूरी गर्माहट के साथ
उतरता है क्यूबा और वियतनाम
असली कक्षाएँ जमती हैं
ढाबे और मेस की टेबलों पर
होती है हर सड़क के बरअक्स
एक झाड़ीदार टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी
एक मुकम्मल विकल्प की ठसक के साथ।
किसी नशे की तरह उतरता है जे.एन.यू. नसों में
और छा जाता है पूरे वजूद पर
यहाँ होना एक अलग दुनिया में होना है
कि पी.एस.आर. के बाज़ुबाँ पत्थर
और दीवारों के पोस्टर
देते हैं जीने की सलाहियत
छाती फुला के बताते हैं अग्रज
कि क्रांति की सेज सजाने वालों की यह दुनिया
कभी थम गई थी एक थप्पड़ के चलने से
कि तुम्हारी सोच का बदलना
बड़ी क्रांति का होना है
कि लाइब्रेरी के छठे माले पर
सेल्फ़ की किताबों के बीच अटके
चार नयनों से भी होती है क्रांति
सपने और हक़ीक़त की घालमेल रेखा पर
यूँ बिठाता है जे.एन.यू.
कि जे.एन.यू. से निकलने में
निकल जाती है पूरी उम्र
छोटे से छोटे मुद्दे पर
अदहन की तरह उबल पड़ता है जे.एन.यू.
कभी हॉस्टल में घुसा कुत्ता जुगलबंदी करता है
युधिष्ठिर संग स्वर्ग गए स्वान से
कहीं हाथ की बिसलरी की बोतल
चुगली करती है साम्राज्यवाद विरोध की
तो कहीं ढाबे का छोरा
चहक के दागता है सवाल
नए-नए घुसे रंगरूट से
तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर!
मार्च ऑन और इंक़लाब के नारों के ग़ुबार उड़ाता
जी.बी.एम. और बहसों से ख़ून खौलाता
सवाल का दूसरा नाम है जे.एन.यू.
जो अक्सर चिपक जाता है प्रश्नचिह्न बनकर
सत्ताधरियों के माथे पर
बहुत सवाल पूछता है जे.एन.यू.
ठेठ अपने अंदाज़ में
मसलन सवाल यह है कि
सवाल है क्या?
यूँ सवाल तो यह भी हो सकता है
कि जे.एन.यू. में
कितना बचा है जे.एन.यू.?
- रचनाकार : प्रमोद कुमार तिवारी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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