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जिसे तुम मेरा पिता कहती हो

jise tum mera pita kahti ho

पवन करण

पवन करण

जिसे तुम मेरा पिता कहती हो

पवन करण

और अधिकपवन करण

    इस बार वह भी जल्दी घर लौटना ही चाहता था

    और माँ तो हमेशा की तरह उसकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर ही रही थी

    इस बार वह घर लौटा तो बहुत बदला-सा था

    हमेशा की तरह वह कुछ लेकर भी नहीं आया वहाँ से

    एक जोड़ी नए कपड़े, नई चप्पलें, कुछ रुपए

    कि जिन्हें देखकर माँ को मिलती राहत

    लौटकर उसने किया कोई उत्साह प्रदर्शित

    एकदम शांत बना रहा उसका चेहरा

    माँ ने उससे पूछा भी उसने टाल दिया

    लेकिन उसने महसूस किया माँ उसके भीतर के बदलाव को समझ रही है

    हालाँकि पिछली बार भी जब वह लौटा असहज था

    लेकिन उतना फिर भी नहीं जितना इस बार

    इस बार उसके भीतर तेज़ी थी और आक्रामकता थी

    इस बार ऐसा हो रहा था घर के आँगन में लगी मशीन भी

    चारे की तरह उसे काट रही थी लगातार

    और मशीन चलाने वाले हाथ भी उसी के थे

    क्यों, आख़िर क्यों? पिता छोड़कर चले गए माँ को

    दिन-भर काम में जुटी रहने वाली अपढ़

    मगर ख़ासी अच्छी इस औरत में क्या कमी थी

    और क्या कमी है मुझमें अभी पिता की ही कलाई पकड़ लूँ

    तो वे छुड़ा भी पाएँ मुझसे, रह जाएँ कसमसाकर

    चुभता तो पहले भी रहा था लेकिन इस बार उसे,

    भीतर तक भेदता रहा अपनी दूसरी माँ का चेहरा

    इससे पहले जब वह उससे बात करती, फेरती उसके सिर पर हाथ

    उसे अजीब मगर अच्छा लगता वह ख़ुद चाहता था वह उसे पूछे, प्यार करे

    लेकिन इस बार उससे, उसके हाल-चाल पूछती वह उसके क़तई अच्छी नहीं लगी

    ही उसका वह बेटा जिसे सब उसका छोटा भाई कहते

    जहाँ तक कि गाँव में अकेलापन भोगती उसकी माँ भी,

    इस बार वह भी उसे अपने भाई की तरह नहीं लगा

    पहली बार उसे लगा जैसे अपनी माँ के बेटे की तरह लौटा है वह

    वह माँ के बारे में बेटे की तरह सोचते लौट रहा है

    पहली बार उसे लगा यह आदमी जो गाँव में मेरी माँ को छोड़कर

    इस औरत से यहाँ ब्याह रचाए बैठा है

    मेरा पिता होते हुए भी पिता की तरह नहीं है मेरे,

    आख़िर क्यों, क्यों भेजती है माँ मुझे उसके पास

    लौटते ही क्यों पूछती है बार-बार उस आदमी के बारे में

    जो कभी झाँकता भी नहीं उसके मन में

    पूछता भी नहीं कैसी है वह औरत जिसे वह

    एक गाँव में अकेली एक ईंट-पत्थर के घर

    और गोद में खेलते मेरे सहारे छोड़ आया

    कैसे कहूँ माँ तुम्हारे और मेरे लिए कोई जगह नहीं वहाँ

    दिल में, घर में, कहीं कोई निशान नहीं वहाँ हमारे

    वह औरत जिसे तुम मेरी छोटी माँ कहती हो

    भले ही प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरती हो

    खिला-पिला देती हो कुछ नया बनाकर

    लेकिन उसने आज तक मेरे सामने अपने बेटे से तुम्हें बड़ी अम्मा नहीं कहा

    तुमने भले ही स्वीकार कर लिया हो सब, लेकिन वह कभी

    सोच भी नहीं सकती उसके शानदार से घर की बैठक में

    उसके राजकुमार जैसे बनकर रहते बेटे के साथ

    किसी दीवार पर टँग जाए तेरे गँवार बेटे का फ़ोटो

    वह दस हज़ार रुपए महीने कमाने वाली औरत

    दस सेकेंड के लिए भी तुम्हारा और पिता का ज़िक्र नहीं करती बर्दाश्त,

    और पिता भी क्या माँ जो मुझे वहाँ जानते हैं वह तो ठीक

    मगर वे तो किसी और को ये भी बताने में हिचकते हैं

    कि मैं गाँव में रह रही उनकी उस पत्नी का

    वह बेटा हूँ जिसे वह छोड़ आए अँधेरों में भटकता

    इस बार वह अकेलापन भोगती अपनी माँ को दृढ़ता से बताना चाहता है

    हम दोनों के इस पिछड़ेपन से दूर उस रहन-सहन,

    उस वैभव में, जिसे उस औरत और उस पुरुष ने मिलकर रचा है

    कोई जगह नहीं हमारे लिए, हमारी धूल में सनी शक्लें

    कहीं नहीं ठहरतीं उनकी पाउडर से पुती शक्लों के सामने

    और जिस आदमी को तुम बेहद समझदार, भला और अपना पति

    और मेरा पिता कहती हो वह एक ऐसा कायर पुरुष है

    जो अकेले में भी तुम्हें याद करने

    और मुझे सबके सामने अपना बेटा कहने से हिचकता है, बचता है

    स्रोत :
    • पुस्तक : स्त्री मेरे भीतर (पृष्ठ 15)
    • रचनाकार : पवन करण
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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