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झाड़ू

jhaDu

प्रभात

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झाड़ू

प्रभात

और अधिकप्रभात

     

    एक

    घर में चलने वाले क्रिया-कलापों से 
    निकलता रहता है कुछ न कुछ निरर्थक 
    फैला-बिखरा रहता है यहाँ-वहाँ
    खटकता रहता है आँखों में 
    लगता रहता है असुहावना 

    झाड़ू उसे सकेलने-समेटने में मदद को आती है 
    झाड़ू की मदद से सँवरता है फिर से घर 
    दमकता है आँगन 

    अब घर आँगन में नंगे पैर चलना-फिरना
    अच्छा लगता है 
    उस अनोखे साफ़-सुथरेपन में 
    किसी को बुलाने की हूक उठती है 

    घर-आँगन तो था उतना ही है 
    पर उसका विस्तार कर दिया हो झाड़ू ने जैसे  

    दो

    पृथ्वी के अलग-अलग इलाक़ों की 
    अलग-अलग परिस्थितियाँ है
    ज़रूरतों के अनुसार 
    अलग-अलग तरह के झाड़ू हैं पृथ्वी पर 

    एक अकेली बस्ती को ही चाहिए कई तरह के झाड़ू 
    रास्तों-चौराहों को झाड़ने के लिए चाहिए 
    छतरियों के तारों सरीखे मज़बूत 
    घाघरे के घेर सरीखे विशाल नारियल के झाड़ू
    बैल-भैंसों के बाड़ों को झाड़ने के लिए चाहिए 
    अरहर की कामड़ियों के मोर के पूँछड़े सरीखे लंबे झाड़ू 
    छप्परों के धूमसे और काले जाले हटाने के लिए चाहिए 
    देशों के झंडों सरीखे ऊँचे झाड़ू
    कच्चे घर आँगनों को झाड़ने के लिए चाहिए 
    खजूर की लफरों के झाड़ू 
    खलिहान झाड़ने के लिए चाहिए 
    खेत की मेड़ पर उगी खरपतवार की झाड़ू 
    और शमसान झाड़ने के लिए चाहिए
    वहाँ अनंत नींद सोये हुओं पर उगी 
    झाड़-झंखाड़ की झाड़ू 
    और राख सकेलने के लिए चाहिए 
    इंसानी हाथों और धैर्य की झाड़ू 

    तीन

    जहाँ-जहाँ गया इंसान 
    वहाँ-वहाँ गई झाड़ू 
    इंसान को अकेला 
    और असहाय न पड़ने देने के लिए 

    कल ही गृहस्थ जीवन से छूटकर आए इस व्यक्ति ने 
    जो कि अब साधु हो गया है 
    जिसकी संगिनी मुँह ढाँककर विलाप करती है वहाँ
    रात के आँगन में बैठी 
    ‘गंगा जी के घाट पै सायब साधु होगो हो राम 
    लिख-लिख चिठिया दे रही बीरा बेगो सो आज्यौ हो राम’ 

    रात भर विचार किया साधु ने
    असार संसार से छुटकारा पाया अब मैंने 

    जागा तो भोर में अपना आस-पास बुहार लेने की 
    बेक़ाबू इच्छा जागी मन में 
    कुछ पल बाद पाया कि 
    एक हाथ में झाड़ू है 
    और मन में झाड़ू लगाने की तैयारी 
    और इससे उसे राहत मिली गहरी

    एक-एक पल भारी है 
    इस क्रूर अकेलेपन में 

    चार

    मेरे बाबा के पास कुछ अद्भुत झाड़ुएँ थीं 

    एक थी आँख की झाड़ू 
    अनाज के चार दाने भी अगर 
    उन्हें बिखरे दिख जाएँ कहीं 
    वे उन्हें आँख की झाड़ू से सकेलते थे 
    और अनाज के कोठे में पहुँचाते थे 

    एक थी पत्थर के कोकरे की झाड़ू 
    जिससे वे बैलों के शरीर से लिपटा 
    गारा और रेत खुरचते थे 
    फिर उन्हें कपड़े की झाड़ू से 
    पोंछते फटकारते थे 
    बैलों की सगी माँ तो थी नहीं 
    इस संसार में बाबा ही 
    बैलों की दूसरी माँ थे 

    अब वे बैल हैं 
    न बाबा 
    न गेहूँ के चार दाने ही हैं कहीं 
    घर में बिखरे हुए 

    इसमें रहते थे जो लोग भी चले गए 
    कोई जयपुर कोई गुजरात 

    सूअर घूमते हैं 
    और कुत्ते बैठते हैं अब यहाँ 
    तावड़े में जाते राहगीरों को 
    दुपहर में अभी भी मिल जाती है यहाँ छाया 

    पाँच

    झाड़ू की तरह पड़े रहते हैं लोग 
    दुनिया के ओनों-कोनों में 
    लेकिन सुबह होते ही 
    दुनिया को उनकी ज़रूरत पड़ती है 

    झाड़ूओं की तरह निकलते हैं लोग काम पर 
    तब जाकर दुनिया में कुछ काम शुरू हो पाता है 
    फिर जैसे ही धुल-पुँछ जाती हैं शीशों की बहुमंज़िला इमारतें 
    इन लोगों को डाँटना-फटकारना शुरू कर दिया जाता है 

    जैसे ही पुल बन जाते हैं 
    जैसे ही बाँध बन जाते हैं 
    उन्हीं ओनों-कोनों में फेंक दिया जाता है लोगों को 
    जहाँ से खदेड़कर लाया गया था 

    तब तक उन्हें खाना-कपड़ा दिया जाता है 
    जब तक चलती है परियोजना 
    इसके बाद छोड़ दिया जाता है उन्हें तन्हा 
    गर्मियों में धूल फाँकने 
    सर्दियों में पानी में बहने 

    एक दिन ऊब जाते हैं लोग इन क्रूरताओं से 
    इंकार कर देते हैं इनमें रहने-सहने से 
    इन लोगों के समूहों की साँसें इकट्ठी होकर 
    धरती पर एक विशाल हवा को खड़ा करती है 
    फिर उसे सही दिशा दी जाती है 

    विशाल हवा का झाड़ू चाहिए ही 
    पृथ्वी पर फैली असुंदरताओं को बुहारने के लिए

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रभात
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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