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जनपथ

janpath

वर्णाश्रम की जाँघ चाटने वाले

सतयुगी शासक अब

राजपथ के इर्द-गिर्द बनी

माँदों में घुस चुके हैं।

पक रही है यहाँ

मृत इतिहास की ज़हर भरी

चाशनियाँ, उठाते हैं वे

ज़िंदगी का हर लुत्फ़

और समता भरे भारत के लिए

की गई हर लड़ाई को

कहते हैं जो व्यभिचार।

देवताओं और देशभक्ति के

अर्थों में, कारख़ाने बेचकर

पैदा की गई बेरोज़गारी के

यज्ञ को कहते हैं जो 'नई क्रांति'

नाशपीटों की यह धोखेबाज़ सेना

इतना भी नहीं जानती

कि मेरिडियन होटलों की बग़ल से

गुज़रने वाली कोई भी सड़क

'जनपथ' नहीं हो सकती

जनपथ तो उन्हें बनाना है

जिनके हाथों में पचास साला

आज़ादी के बाद भी

तख़्तियाँ दिया जाना शेष है।

स्रोत :
  • पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 89)
  • संपादक : कँवल भारती
  • रचनाकार : जयप्रकाश लीलवान
  • प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
  • संस्करण : 2006

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