घर के बाहर सड़क, सड़क के पार पेड़
पेड़ के उस पार जंगल
जंगल अब दूर नहीं, हैं नगर के बीचों-बीच
जंगल ख़ुद एक व्यापार है
जंगल शहर में है, शहर व्यापार में है
व्यापार देश क्या सारे संसार में है
सड़कें सोचती नहीं हैं
सोचते हैं उन पर चलने वाले
जंगल भी सोचते नहीं हैं
सोचते हैं उन्हें रौंदने-काटने वाले
ऐसे लोग रास्ता नहीं भटकते कभी
वे बनाते हैं ऐसे रास्ते
भटक जाते हैं जिन पर जंगल में रहने वाले लोग।
श्मशान घाट भी अब सूने नहीं रहे
चौराहे के ऐन क़रीब करते हैं यातायात को अवरुद्ध
‘आत्मा को शांति प्रदान करना प्रभु’
तीन बार प्रणाम करना तो दूर
कोई दो पल भी नहीं ठहरता
घाट का पेड़ जिस पर चिड़िया बैठती है
बोलती है टिटहरी
कूकती है कभी-कभी कोयल
कुत्ते और गाय खुजलाते हैं जिससे पीठ
एक लहर उठती है जो बहुत कम को दिखती है
कोयल कूकती है तो ठंडी राख में होता है कंपन
फूटती हैं कोंपल पेड़ में उसकी आवाज़ से
वो पेड़ कटने वाला और विलीन होने वाला है घाट
खुलने वाली हैं अब नई चमचमाती दुकानें।
‘‘अरे, राजेंदर माचिस देना जरा’’
‘‘कल फिर इधर को आओ तो
लोटा भर पानी लेते आना भैया
प्यास से गला सूख रहा है’’
जैसी आवाज़ें पीछा नहीं करतीं अब
श्मशान घाट बोलते नहीं हैं
बोलता है उनके भीतर से हमारा डर
बोलते तो जंगल भी नहीं हैं
बोलते हैं जंगल को बचाने के नाम पर
जंगल को बेचने वाले लोग।
- रचनाकार : नीलेश रघुवंशी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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