जैसे गिरती है अंतरिक्ष से कोई मन्नत
jaise girti hai antriksh se koi mannat
गार्गी मिश्र
Gargi Mishra
जैसे गिरती है अंतरिक्ष से कोई मन्नत
jaise girti hai antriksh se koi mannat
Gargi Mishra
गार्गी मिश्र
और अधिकगार्गी मिश्र
दस्ताने पहन लेने से जो बच जाती त्वचा तपती धूप में जलने से तो उस जलन से कैसे बच पाती जो गुनगुने आँसुओं के गिरने भर से जल जाती है
मेरे बाएँ हाथ की कलाई पर टिका एक तिल ही है
इस तन्हा दुपहरी में मेरा साथी
देह पर तिलों का काम सुंदरता को बढ़ाना नहीं बल्कि सिर्फ़ दूसरे का ध्यान भंग करना है
तिल से उठती है बात, अधरों तक जाती है
अटकती है मुस्कुराहटों में और मुस्कुराहटें?
वे कहाँ जाती हैं?
मुस्कुराहटें… देखो मधुबन में
वहाँ जाकर खिल रही हैं
पेड़ों की शाखों पर
कितनी ही मुस्कुराहटें हैं
हरी, पीली, हल्की पीली, भूरी, सुनहरी
मद्धम-मद्धम झूम रही हैं
वह देखो गिरी एक मुस्कुराहट तुम्हारे क़दमों में
जैसे गिरती है अंतरिक्ष से कोई मन्नत।
- रचनाकार : गार्गी मिश्र
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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