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जब वह प्रेम करती है

jab wo prem karti hai

वीरू सोनकर

वीरू सोनकर

जब वह प्रेम करती है

वीरू सोनकर

गुलाब-सी ख़ाल में भरी हैं ढेरों मछलियाँ

पनीली दो कटोरियों में जागते हैं स्वप्न

सोती हैं कुछ कामनाएँ अधखिले होंठों पर

उस स्त्री के भीतर उग आया है एक पुरुष

प्रेम की पहली परिभाषा, अब उसकी साँस के उतार-चढ़ाव में है

और दूर खड़ा, एक अकेला पुरुष

टटोल रहा है हवा के हाथों में अपने पहले प्रेम की जवाबी स्वीकृति

और सोचता है

एक दुनिया, जिसे अब तक बन जाना चाहिए था

जो अभी तक बनी ही नहीं

वह स्त्री मुस्कुराती है

मानो देख ली हो उसने चुपके से, एक पहली झलक

उन मछलियों की, जिनकी पीठ पर पुरुष का नाम लिखा है

स्त्री एक वाचाल नदी में बदल रही है

अपने बालों को उलझा दिया है उसने, उन्हीं मछलियों की पीठ में

मछलियों की यात्रा, पुरुष तक जाने का ब्लूप्रिंट है

अब नदी कुएँ जितनी गहरी है

पुरुष समुद्र-सा उथला!

पुरुष की आँखों में जो दुनिया एक स्वप्न है

वह दुनिया, अब उस स्त्री के हाथों में है!

वह बार-बार प्रेम करेगी

तब तक करेगी जब तक पुरुष की पीठ पर उग आए एक बड़ी-सी मछली

स्त्री चाहती है पुरुष उस मछली की आँख से दुनिया देखे

स्त्री अपने बालों को झटक सारी मछलियाँ आकाश में उछाल देगी

कि उस नई दुनिया की हर बुरी नज़र

मछलियों, तुम ख़ुद पर ले लो!

स्रोत :
  • रचनाकार : वीरू सोनकर
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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