एक स्त्री विलाप कर रही है
देखा जाए तो
साधारण-सी कितनी आम पंक्ति है यह
जैसे कह दिया जाए
कोई सो रहा है
सुबह की सैर को निकाल रहा है कोई
जैसे कोई खाना खा रहा है
और सत्री विलाप कर रही है
पता नहीं क्यों लग रहा है मुझे
क्या ऐसा नहीं हो सकता...
लिखूँ यदि यूँ कि
स्त्री विलाप कर रही है
तो ऐसा लिखते ही सूख जाए पेन की स्याही
जिस कैमरे ने खींची हो ऐसी तस्वीर
उसके लैंस में पड़ जाए तरेड़
या फिर झड़ जाए ब्रुश चित्रकार का
गायक के कंठ में फँस जाए सुर
कमाल देखें
कि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है
दुनिया के प्रारंभ से
विलाप कर रही है स्त्री
जैसे घूम रही है पृथ्वी
वह नहा रही है और रो रही है
हिचकियाँ ले रही है और सेंक रही है रोटियाँ
एक हाथ से बाँधा है नाड़ा उसने अभी
और दूसरे से, होंठों तक फैले आँसुओं को पोंछा है
पूरे ज़ोर से निचला होंठ दबाकर
ईश्वर की निर्धारित प्रार्थना तक पूरी की है
बाज़ारों के उठ जाने के बाद
ज्यूँ उजड़ नज़र आते हैं मैदान
ज्यूँ भरे थानों के बावजूद
उतरता नहीं गाय का दूध
इच्छाएँ अलमस्ती में ख़ुद को ही निगलती जाती हैं ज्यूँ
ज्यूँ रात का आख़िरी गजर बजते ही भयावह हो उठता है क़ब्रिस्तान
इस शाश्वत रुदन की
कुछ ऐसी ही सच्चाई है
दुनिया के तमाम शोर-शराबे में
एक स्त्री का विलाप
किस उम्मीद से है...
स्त्री विलाप करे
और वृक्ष फलदार न रहें
सूख जाएँ पक्षियों की चोंचें
हमेशा के लिए मल्लाह उलट दें अपनी किश्तियाँ
चीत्कार उठे तथा आख़िरी ध्रुवों तक जाए
और इसके बाद फिर
परछाइयाँ ऐंठना भूल जाएँ
सोचें ज़रा
ऐसा घट सकता है क्या...
- रचनाकार : मनोज शर्मा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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