बीज की तरह
बिछती धरती पर
कुचले जाने पर
उठती बार-बार
घास की तरह
हर अँधेरे वक़्त में
धान की बालियों में फूटती
धरती का सपना बनकर
भरी होती सावन के मेघों की तरह
बरसती ऐसी कि फूटते
हर संबंधों में अंकुर
कोयल का घोंसला बनती
अपने भीतर हज़ारों वर्षों की पीड़ा समेटे
टूट-टूटकर बनती
रचना की सुगंध से भरी
स्त्री चल रही है—इस धरती पर
अपने कोमल-कोमल पाँवों से
उसे सहलाती
इसमें किसी वामनावतार की तरह
धरती को तीन डग में नाप लेने का
अहंकार नहीं
न किसी पागल राजा के अस्तबल
के मतांध अश्वमेघ के घोड़े
जैसे विजेता होने की लूटेरी चमक है—
स्त्री चल रही है धरती पर
पुआल की तरह महकती
धान की तरह खिलती
नदी की तरह गाती
बच्चों को अपनी पीठ पर लादे
धनुष टंकार की तरह बजती
जंगलों, पहाड़ों, घाटियों को
प्रसव की तरह जीती
धरती को बचाने की ज़िद लिए
बाजार की आँखों में खटकती,
इंद्रधनुष का रंग बिखेरती
स्त्री चल रही है धरती पर।
- पुस्तक : हे गार्गी (पृष्ठ 48)
- रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
- प्रकाशन : रश्मि प्रकाशन
- संस्करण : 2018
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