स्त्री बनकर
istri bankar
आज के दिन
और सिर्फ़ आज के दिन
मैं चाहता हूँ कि तुम्हें बताऊँ
कि सारी बातें,
जो प्रेम के सबसे सुंदर दौर में कही जाती हैं पुरुष द्वारा,
वे स्त्री बनकर कही जाती हैं।
यक़ीन मानो
हर बार तुम्हारी गोद मे तुमसे क़समें-वादे खेलते वक़्त
मैं मन से स्त्री होता हूँ
मुझे माथे पर माँ की बिंदी
और आँख में बहन का काजल महसूस होता है
मुझे मेरे बाल कमर तक महसूस होते है
और ध्यान वादे से ज़्यादा बाल पर जाता है
कितनी मुश्किल होती होगी गर्मियों में
कि तुम रोने से पहले सोचती हो क्या
काजल या आईलाइनर के बारे में?
भरा हुआ दिल
लकदक छाती का भार
कंधों के दोनों तरफ दाग़
कंट्रास्ट में उलझा हुआ मन
और तो और सड़क पर यह भी लगता है जैसे
हर शख़्स मुझे ही देख रहा है
उनका यूँ घूरे जाना मुझे नहीं पसंद
ओह! मैं कितना सोच रहा हूँ
कोई मुझे बताए
कि मुझे प्यार करना चाहिए हिसाब नहीं।
मैं तुमसे मिलने नहा-धोकर आता हूँ,
ब्राह्मण पिता रोज़ की तरह टीका सजाते हैं मेरे माथे पर।
जो झका झूमर में शायद तुम्हारे दुपट्टे के कोर पर रच बस जाता है
और अंततः उस पिता के तिलक को पिता की बिंदी होने के बीच
एक ख़ूबसूरत बात ये है
कि सारी बातें,
जो प्रेम के सबसे सुंदर दौर में कही जाती हैं पुरुष द्वारा,
वे स्त्री बनकर कही जाती हैं।
तुम्हें पता है कितनी बार मैं अपना शरीर निहार
निहाल हो जाता हूँ।
दसवीं की बायोलॉजी पर ज़ोर डालता हूँ
क्या-क्या अजीब पढा था
नर कैसा मादा कैसी।
कैसे बढ़ता है शरीर जब बाल आते हैं
मगर वहाँ कहीं नहीं थी
पुरुष के भीतर स्त्री की बात।
कहीं नहीं था
मिल कर घुल जाने का ज़िक्र।
अब दिन-दिन,
अपने स्त्रीत्व को देखकर
अपना शरीर मुझे तुम लगने लगा है
हाँ, मुझे लगा
और तुम जानो कि
मेरे स्तनों की जगह पर वैसी ही आकृति
मेरे चेहरे के चारों तरफ़
वैसा ही कोमल भाग मुझे तुम बनाते हैं।
इसलिए आज के दिन
और सिर्फ़ आज के दिन
मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि
पढ़ी हुई बायोलॉजी भूलकर
मैं चौबीसों घंटे तुम रहना चाहता हूँ
ओह!
यह तो कितना सुखद है न
कि प्रेम के दौर के बाद भी
जब सारी बातें स्त्री
बनकर कही जाएँ।
- रचनाकार : शाश्वत
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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