किसी मरदूद पे टमाटर फेंक के मारने से बेहतर है
उसे टमाटर पे फेंक के मारना
मेरी मृत्यु ने पंचांगों को भौचक्का कर दिया था
जिस तरह मेरे जन्म ने
ताकि रहे आदमी की पहल
और सभी जीवधारियों की
और उन सबकी जिनमें अभी जीवन खोजा जाना है
और रहे ख़ूबसूरती इस मवाली की
भन्नाया घूमता है भौंरे की तरह
और जाने कहाँ है इसकी मंज़िल
कभी अशिव में शिव
कभी शिव में भटकता है अशिव बन के
ज़मीन से फूटता है फ़सल की सूरत
टूटता है विपत्ति बन के किसी दिन
दिलों में मुहब्बत
समाज में शोषण
फ़ितरत में हरामपन
कमज़ोरों में ताक़त
और सिरफिरों में जीवट बन के उतरता है
रूह में उतरता है शैतान की तरह
हड्डियों में ख़ून, आँख में रौशनी, दिमाग़ में अँधेरा
चीड़ में तारपीन का तेल
और देवदारों के हरे में क़यामत का नूर बन के
समुद्रों में सोम, सूर्य में रस
भ्रूण में फ़ोन नंबर, पते में पिनकोड,
ठोस चीज़ में ख़ला बन के
ख़ला में बिजली, बिजली में चुंबक, चुंबक में लकीर
लकीर से आती है चीख़
अनंत सूक्ष्म और अनंत विस्तार की एकरूप
धरती पर आया कोयले की चाशनी में प्राण बन के
और जाने कितने लोकों में फूटा हो यह विलक्षण फव्वारा
दिखता है तमाम गतियों में छंद की सूरत
इस पद के साथ
कि सूरत अगर पैदा हुई
तो वह अपने आपमें एक तर्क है
जो वहाँ भी रहता है जहाँ बुद्धि नहीं रहती
जो तब भी था जब नहीं थी यह मग़रूर और फूली हुई चीज़
काली रातों में रम्ज़-ओ-इशारा
पर्वतों में सवेरा
एक दिन अचानक उत्पन्न हुआ हो जैसे
जैसे ली हो किसी ने साँस
बिना पदार्थ और ऊर्जा के
तमाम तर्कशास्त्र को ऊट-पटाँग करते हुए
फोड़ा हो किसी ने नारियल पंडिज्जी की खोपड़ी पर
और यह उलटबख़्त फैला विडंबना बन के रायते की तरह
घर की नाली से आकाशगंगा तक।
- रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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