आँखें मूँदते कब रात ढल जाती थी
पता ही नहीं चलता था
कि इन दिनों रात का अँधेरा उतरता ही नहीं मन से
उतरता नहीं मन से काई लगी सीढ़ियों का भय
इस बरसात में रखती हूँ थह-थह कर पैर पृथ्वी पर
यह धरती इतनी बीहड़ नहीं लगी पहले कभी
इस बीहड़ता का सन्नाटा चीरते हुए कान के परदे उतारने लगा है
नसों में धीरे-धीरे...
उतरता नहीं मन से बिजलियों की कड़कड़ाहट का भय
कितनी जानें जा चुकी हैं इनके गिरने से
इनके गिरने से जो गिरे थे पेड़
वे फिर कभी नहीं उगेंगे इस धरती पर
वहाँ खुलेगा कोई गुणा-गणित का केंद्र
मैं अठानवे, निन्यानवे से आगे बढ़ ही नहीं पाई
उनके सौ का आँकड़ा हज़ार से लाख की सीमा तोड़ बढ़ता गया...
इधर लोग उलझे रहे गाँव के चकरोट में
जबकि सड़क गाँव की छाती चीर निकल गई
कितने बचे हैं खेत, बाग़, बग़ीचे
कितनी बची है हमारे बीच की दुनिया
हमारी दुनिया के बिलाने के साथ ही उगती है उनकी दुनिया
उनकी दुनिया की चकाचौंध रौशनी के बढ़ते प्रकाश से मैं डरती हूँ
छिपा रही हूँ घर के तहख़ाने में
माँ के गीत
पिता के सपने
भाई की लकड़ी की गाड़ी
गिट्टी, चिप्पी, चूड़ी के रंगीन टुकड़े
वे खेल के सामान जो सुलभ थे सबके लिए
इस घिरते अँधेरे में जला कर उम्मीद का दीया
रख देती हूँ आँगन के ताखे पर
रात यहीं उतरेगा चाँद
मैं बलइया लेती उसे चूम लूँगी जी भर
मेरे आँगन में बचा रहे चंद्र खिलौना
कउवा मामा
दूध-भात की लोरी
कि इन दिनों बढ़ते अँधेरे में सब भागना चाहते हैं छुड़ा कर हाथ
मेरी हथेलियों पर कुछ जुगनू बैठे लड़ रहे हैं पूरी ताक़त से
बबूल की झाड़ ही सही
थोड़ी-सी चुभन ही सही
थोड़ी-सी जलन ही सही
हम सह लेंगे दर्द की सारी हदें
लड़ते हुए अपने-अपने अँधेरे से...
- रचनाकार : सोनी पांडेय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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