एक
चंद एकड़ के अहाते, चंद इमारतें
कुछ क्लासरूम, कुछ लाइब्रेरियाँ
आप समझते हैं हम ‘यहीं’ पढ़ते हैं
कितने प्यारे हैं आप
किताबों से डरते हैं और प्रोफ़ेसरों से
यहाँ तक कि विद्यार्थियों से भी
पढ़ाई चीज़ ही ऐसी है
वैसे डरने की कोई बात नहीं
प्रोफ़ेसर छड़ी क्या डस्टर तक नहीं छूते
उल्टे आप ही चाहें तो...
और किताबों का क्या है
जस शीर्षक तस कंटेंट
डिग्रियाँ लेंगे तो लेते जाइए, लेमिनेशन वाली
कुछ सर्टिफ़िकेट और ट्रॉफ़ियाँ भी
और ये बढ़िया लिंक के ताले दरवाज़ों के लिए
आप नहीं समझेंगे हम कहाँ पढ़ते हैं
दो
हमारे हाथों में किताबें रहें न रहें
आँखों में चेहरे रहते हैं
जिन्हें हम बार-बार पढ़ते हैं
कुछ आँखें हमारी विचारधारा तय करती हैं
कुछ ज़ख़्म सवाल
फ़ुटनोट्स जितनी लंबी मौतें
ज़िंदगियाँ भूमिकाओं जितनी कम
और एक कभी न ख़त्म होने वाला फ़ील्ड वर्क
हर तरफ़ जहाँ हम देखते हैं या नहीं देखते
ऐसी कितनी थीसिस हम हर रोज़ लिखते हैं
जिन पर नमी भरे दस्तख़त होते हैं
मन के भीतर जमा करते हैं और पढ़ते हैं हम ही
हम ही सवाल करते हैं और जवाब भी खोजते हैं हम ही
पढ़ने का हमारा क़ायदा है कि
हम हर कहीं पढ़ते हैं
जेल की सलाख़ों में हम आपकी विचारधारा पढ़ते हैं
आंदोलनों में प्रतिरोध
यहाँ तक कि
आपकी सौम्यता के पीछे की बर्बरता
और बर्बरता की निरंकुशता
हम आपसे पहले पढ़ते हैं
आप चाहें तो यूनिवर्सिटी बंद कर दें
चाहें तो किताबें
हम किताबों से बेहतर ताले पढ़ते हैं
जे.एन.यू.
किसी के पर्स की तली से चिपकी रही
किसी की पीठ से
कहीं सी.वी. में टँगी रही
कहीं पते में
कुछ सहमति में रही, कुछ असहमति में
कुछ विचार में कुछ वैचारिकता में
और मुनीरका के एक सीलन भरे अँधेरे कमरे में
आधी रात की प्यास का पानी बन कर
हलक़ से उतरती रही यूनिवर्सिटी!
- रचनाकार : शुभम श्री
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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