एक
सारे रास्ते मेरे दरवाज़े पर आकर
बंद होते थे
मेरे दरवाज़े से कोई रास्ता
बाहर नहीं निकलता था
मतिभ्रमों का मायाजाल था
और
मैं था
दो
इतना आराम है यहाँ
कहीं पहुँचने की कोई होड़ नहीं
जी लिया जैसा भी जिया
मैंने जीवन नहीं
जीवन का स्थगन जिया
तीन
एक बार रात बारह बजे के आस-पास
मैं अपने एक दोस्त के घर से
दूसरे दोस्त के घर तक
जाने वाली सड़क के चक्कर काटता रहा
असहाय क्षणों में सड़कें ही मेरा सहारा बनीं
चार
इतनी शुभकामनाएँ भेजी लोगों ने
माँ ने दिया आशीर्वाद
ख़ुश रहने का हर बार
असर नहीं किसी का
पाँच
मैं जीतता तो वे दयनीय
मैं हारता तो वे दुश्मन
मुझे चैन चाहिए।
छह
यह एक समर्थ जीवन हो सकता था
नहीं हुआ
मुझे हम सबसे सहानुभूति है
और प्यार की कोई इच्छा नहीं
सात
हम कितने खेतों में आग लगाएँ
कितने सपनों की फ़सल जलाएँ
कितना काला धुआँ फैलाएँ
इश्क़ के आसमान में
अब मैं ख़ुद को तैयार करता हूँ
एक नए शाप के लिए
आठ
अनंत और अचिह्नित दरारों से भरा हुआ
अदृश्य दीवारों से टकराकर लौटते हुए
ख़ुद को चोटिल करता
हज़ारों किलो लोहे का भार ढोए
दर्द में अंदर-अंदर भिंचता, सिकुड़ता
और लगातार हारता
भयावह डरों का इलाज ढूँढ़ता
पृथ्वी के सबसे गहरे समुंदर के
तल में जाकर बैठ गया
मेरा दिमाग़
करोड़ों तार भीतर उलझ गए हों
इतनी उलझन थी
नौ
लेकिन मैं कूदा नहीं
खिड़की के बजाय दरवाज़ा चुना
एक बार फिर
यह उस रात की कहानी है
जब मैं चौथी मंज़िल की बालकनी पर
टहलता रहा बहुत देर
और यह सच था
कि मुझे उकसाया गया था बहुत
दस
सुबह वे लोग आए
पूछते रहे कैसे हो
मैं चुप मुस्कुराता रहा
ग्यारह
डर बचे रहे
हर संभावित त्रासदी के
संभावना बची रही
सुंदरताओं के फैलने की
जीवन बचा रहा
जब तक जिस्म में फँसे
मशीनों की तरह चलते उपकरण
साँस लेते रहे।
- रचनाकार : प्रदीप अवस्थी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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