होने, न होने के बीच की रेखा पर जीने लगा हूँ
hone, na hone ke beech ki rekha par jine laga hoon
प्रांजल धर
Pranjal Dhar
होने, न होने के बीच की रेखा पर जीने लगा हूँ
hone, na hone ke beech ki rekha par jine laga hoon
Pranjal Dhar
प्रांजल धर
और अधिकप्रांजल धर
हर तीसरे मिनट मेरे ज़ेहन में एक लाइलाज दौरा पड़ता है
जिसे तुम मौसमी गुनाह कहते हो, असल में वह राजद्रोह है।
ऋतुओं की संधि-रेखाओं पर छीजता जाता कोई किसान,
मनमानी करती ऋतुओं के चंचल स्वभाव से।
किसी पर ओलावृष्टि तो किसी पर अनावृष्टि
कहाँ समझती है जलराशि
वह तो अपने भार से मुक्त ही नहीं होना चाहती
अपने यौवन के, घमंड के, शक्ति के,
भय के बोझ से।
शायद इसी को मानसून का जुआ कहते सभी
निरीह किसान दबता चला जाता जिसके नीचे।
न बरसकर उसकी गरीबी को गीला करती जाती
मनमानी ऋतुओं की रेखा।
फसल की अछरौटी में दर्ज़ न हो पाता एक भी अक्षर
न धान का, न धनिया का और न ही सरसों का।
परती पड़े खेतों में हज़ारों लीटर पसीना
तिस पर त्रिविध
—शीतल, मंद और सुगन्धित—
वायु का व्यंग्य झीना-झीना।
वह मेरी मनहूस ज़िंदगी की अलभ्य ऋतुओं का
कोई उमस भरा मौसम था,
अपरिचय के अरण्य में खंडित किसी रेखा से साक्षात्कार हुआ
जो सचमुच रेखा जितनी ही सीधी थी,
और मेरे लिए सीधी रेखा खींचना सबसे टेढ़ा काम।
जब भी उकेरता उसके नाम की कोई रेखा
बनती कोई आकृति जो रेखा की बजाय
महज़ कुछ विविक्त बिंदुओं का उथला समुच्चय होती,
कहाँ क़ैद हो पाती उसकी रौंदी गई
कोमल कामनाओं की छलछल!
ख़याल जो टूटे बार-बार, हर पल।
होता जहाँ न वसंत कोई, न शिशिर और न ही पावस।
तमाम अतीत रहे उसके
मुक्त नहीं हो पाई जिनसे वह कभी।
पिछली फ़सल के क़र्ज़ में डूबा किसान
कहाँ उऋण हो सकता था!
उसकी आँखें,
हीरे की तरह चमकती थीं
या किसी टूटे हुए तारे की तरह
जिसमें दुआओं की पोटली बँधी हो,
मेरे अपने इसी समाज के किसी कूड़ेदान में
सभी ऋतुओं में।
दिमाग़ इतना कि दिल उस पर हमेशा ही हावी रहा
उसकी बालसुलभ-वृद्धसुलभ बातों में।
यह छोरहीन वर्तुलों की गोल एक काया का
आत्मघाती विचार था।
अनंगलेखा के गुणा-गणित का हिसाब इतना स्पष्ट
मानो वह गंगाजल हो
यह हिसाब दुनिया से मिले भय का कवच था।
और वह पहुँचाती थी गंगा को
सचमुच के समुद्र से सचमुच के गोमुख तक।
और मैं,
गणित की सालाना परीक्षाओं में कृपांक पाकर
पहुँच जाया करता अगले दर्जों में,
बच जाया करता था मरदूद होने से।
हालाँकि तमाम छमाही इम्तिहानों में कई बार फेल!
अगर फेल न होता तो दौड़ पड़ता उसके साथ
एक बार मिलने वाली किसी मृत्यु की ओर।
और वह उसकी मौत न होती, मेरी भी नहीं
होती तो हमारी मौत, एक मुट्ठी राख की शक्ल में,
जिसमें कम से कम हमारे अवशेष तो साथ होते,
मैं शब्दों के ये शव तो न ढोता
और न ही हर शब्द से जुड़ा होता
उसका कोई ग़ैर-वाजिब पूर्वापर संदर्भ।
ऋतुओं की बारिश तो
मेरे दादाओं-परदादाओं के ज़माने से भी
पहले से होती आ रही थी।
जब कहते बाबा,
कि बच्चा, तीन सिंचाई तेरह गोड़,
तब देखो गन्ने की पोर।
जीवन और अनुभव के तमाम सूत्रछोर उसकी
उँगलियों पर, रेखा के बिंदुओं पर
रखे हुए क़रीने से।
मानो क्यारियाँ हों हरी-हरी
एक गझिन पाँत में।
और देखने में पूरी नदी थी।
उसके कोमल शब्दों से आतिशबाज़ी हो जाती
किसी के भी मन में,
तीस साल तक मुझमें पली मेरी किसी भावना को
तार-तार कर दिया था उसकी मासूमियत भरी आँखों ने,
पिघलता ही चला गया मैं
तमाम मानसिक पाप कर डाले भीतर ही भीतर।
उसने जीवन भर बाजियाँ हारीं किसानों की ही मानिंद,
ताकि जीत सके वह जिसे प्रेम किया उसने।
वह मेरे विचारों की सल्लेखना थी, भाव की गंगोत्री
गुरु थी मेरी और मैं ख़ुद से भी अलग होकर उसका कोई शिष्य।
ग्रहों की यह कैसी गतिकी थी,
जिसे वह समझ ही न सकी असुरक्षा-बोध में।
मेरी भी संवेदनाओं को लकवा मार गया था।
मैं उसकी कोमलता से हार गया था।
जाने कैसे भगीरथ गंगा को धरती पर ले आए होंगे,
कितना तप किया होगा उन्होंने,
और बाबर ने भी किस तरह
हुमायूँ की बीमारियों को अपने ऊपर ले लिया होगा!
अपने अनुभवों की कसौटियों पर कसती रही वह मुझे निरंतर
जब मैं अपने गाढ़े रक्त से उसका चटख एक पोर्ट्रेट बनाता रहता था।
वह नाज़ुक नहीं थी कि छूने से टूट जाए,
उसके बाल भी उतने लंबे नहीं कि किसान कोई
खो ही जाए अपने हल और बैलों के साथ,
सघन केश जाल में।
उसकी संवेदनाओं का घनत्व
तरलता की अपरिभाषेय ऊँचाइयों को छूता था,
वह और न दरक जाए, इसी भय से
कई-कई मर्तबा उसके हृदय को खँगालने का
ख़याल तक त्याग दिया।
होने, न होने के बीच की रेखा पर जीने लगा हूँ
—लकीर का फ़क़ीर—
जहाँ कोई मौसम ही नहीं,
कोई ऋतु या रंग तो क़तई नहीं,
मेरी ही कल्पना के तमाम रंग
अपनी हल्की छायाओं में ज़रूर मौजूद हैं मेरे ही भीतर,
आर.के. स्टूडियो की किसी यादगार होली की तरह।
- रचनाकार : प्रांजल धर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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