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शरशैया

sharashaiya

अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित

सौरीन्द्र बारिक

अब केवल शांति से सोना

लटकते माथे के लिए अर्जुन ने दे दिया

तीर का तकिया

पाताल तोड़ मेरे सूखे मुँह में उड़ेली गंगा

और कुछ नहीं चाहिए

शरशैया पर सिर्फ़ लेटे-लेटे

सूर्य के उत्तरायण की प्रतीक्षा

अस्त्रों की झंकार, धनुष की टंकार,

घोड़ों की हिनहिनाहट

रथचक्र की घरघराहट

इन सबको भेदकर किसी पगध्वनि

नीरवता को और भी नीरव कर रही!

यह किसकी छाया जला रही कुरुक्षेत्र का अंधकार

कौन है जो देवव्रत की शरशैया के पास

खड़ा हो कर रहा भीष्म को आतंकित,

पिता के स्वप्न को रूप देने

जिसने मना कर दिया स्वप्न देखने से

पिता के वर्तमान हेतु जो

जला गया अपना भविष्य

कठोर उस भीष्म को कौन

यह देवव्रत आज कर रहा विचलित!!

श्मशान-नीरव इस कुरुक्षेत्र में

कौन हो रहा प्रगल्भ!

अतीत के अँधेरे से, शिलीभूत विवेक के नीचे से

कराह उठती रुँधी हुई रक्त की काकली।

याद आता वर्षों तक कैसे

रात लंबी होती, दीर्घ साँस गहरी हो जाती

उस दीर्घ साँस में सुलगते आँवे में बर्तन-से

स्वप्न कोमल मन हो जाता लाल,

जलकर पत्थर बनता, और

उस पत्थर तले जीवन बन जाता हीरक शपथ

भीष्म का जन्म होता

सब याद आता

स्मृति का स्पर्श तीर से तीक्ष्ण हो

शरशैया की शांति का संहार कर देता

हे पिता!

आपको पूर्ण कर मैंने समझा

अपूर्णता का दहन

अनुभव किया कितना हाहाकारमय

मरुभूमि बन आकाश की नीलिमा को ताकना

फिर भी उस दिन मैंने मरुभूमि की योजना में

छाती भरी थी

शृंगराज-सा महान बन बरफ़ के ढेर तले

देवव्रत को पोत दिया था

किन्तु देवव्रत मरा नहीं,

उसे मार नहीं सका

क्षमा करना देवव्रत मुझे

जीवन में अंतिम क्षण में

यह विराट शून्यता रह जाए सुनसान

शरशैया पर पड़ी रहे यह महान अपूर्णता

यह हीरक हाहाकार, इतनी ही माँगता, हे देवव्रत?

स्वप्न और स्मृति के मरु को

मत करो और अधिक आलोड़ित

उसे मुक्त करो दीर्घ साँस के झड़ से

स्वप्न की मरीचिका से

मुझे क्षमा करो !!

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 157)
  • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
  • रचनाकार : सौरीन्द्र बारिक
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2009

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