मैं जन्म-जन्म अभिशप्त परिधि
main janm-janm abhishapt paridhi
एक पूर्ण के दो खंडित अंश—
मैं और तुम
एक वृत्त के दो बिन्दु अनिवार्य।
केन्द्र की परिधि और परिधि के केंद्र
एक ही संग उठते हैं, फिर एक ही संग डूब जाते हैं
जब-जब तुमने धरी है देह
मुझे भी एक नामकरण भोगना पड़ा है।
अभिशप्त रहा है मेरा अस्तित्व आदिकाल से
तजा राजसिहासन, छोड़ी गेह, भस्म की सोने की लंका
तोड़ दिए सभी संबंध-संग, सहर्ष स्वीकार किया निर्वासन
फिर भी
कभी गजमुक्ता की माला, कभी वन-पर्वत-नद-नाल
घेरे रहे बाट आजीवन
मेरा मैं नहीं कर सका स्वयं को विसर्जित
न तुम्हारे ही 'तुम' को अंगीकृत, आत्मार्पित।
वेद में, विज्ञान में
या खिंचे खड्ग चमचमाती धार के सान मे
सभी में संपूर्ण रूप से तुम्हें ही किया परिभाषित
तुम्हारा ही रूप उकेरा मैंने दशों दिशाओं में
कमलनाल और तूलिका से ही नहीं, तीर के नोंक से भी
तुम्हारा ही मात्र लिखा नाम बारंबार कालखंड पर
प्रत्येक युग में
स्वेद से, कभी अश्रु से भी, रक्त से।
आदिकाल से नाभिमूल में माटी की सौरभ जो बसी है
सद्य: पुष्पित, तुम्हारे ही यंत्र की, पराग की है।
तुम्हारे ही तन्य ते स्वतः प्रसारित प्राण-मंत्र के
स्पर्श से तन्वंगी हो गई बार-बार पाहन-प्रतिमा
सर्वतंत्र की मूल तुम ही मात्र स्वतंत्र हो
मंत्रबिद्ध मैं तुम्हारी ही परिधि पर नानावेष में आता रहा हूँ
कभी डमरू बजा-बजा नाचता रहा हूँ
मादक लास्य की, की है प्रदक्षिणा
कभी तुम्हारी ही देह उठाए भटका हूँ रन-वन
और ढाह दिया है हिमवान का गौरव-किरीट,
कभी यमुना तट पर रचा है रास
पूजे हैं सहस्रों यंत्र, सुभगे! तुम्हें ही जानकर
कभी पकड़ लिया कालअश्व का रास
तोड़ दिए हैं इतिहास, कर दिया सर्वस्वांत
एक तुम्हारे ही खुले केशों का स्वत्व सँभालने को।
कभी मैंने आसेतु हिमाचल रौंद दिया है
भूलुंठित कर दिए हज़ारों राजमुकुट
प्रत्यंचा चढ़ी ही रह गई जीवन भर—अहर्निश
दशों दिशाओं को बाँध रूपायित करने—तुम्हें ही
कभी मैंने सजाए रजनीगंधा से सेज
रात भर सूँघ-सूँघ फेंकता रहा पंचमुखी गुड़हल का फूल
और जैसे ही लगी है सुबह तुम्हारी देह की सुवास—
तपते माटी की सोंधी गंध—
बढ़ा दिए हैं मैंने डेग तुरंत पुनः दिशांतर पार
इस बार लीवर-पीत सभी लेकर मरमरा गया है तंत्र
हज़ारों उड़ गए हैं छत्र।
कभी कोहबर साज
जला अहिबात की टेमी
कभी दग्ध दुपहरिया घने पेड़ तले
कभी सीमा पार त्रिशूल में सीना अड़ाए
अशरेस की झपकियों में पतवार धरे कभी
बस यही चाहा है मैंने जनम-जनम
कि घूँघट उठाकर संपूर्ण अनावृत—एकबार
बस एकबार कर लूँ—आत्मार्पित।
किंतु रहा हर बार मेरी हथेलियों में शेष
लाल ठप्पा दिया पीले आँचल का टुकड़ा
और प्राण में आकुल अस्तित्व का मूलगंध।
मैं और तुम हैं
एक ही वृत्त के दो बिंदु अनिवार्य
मैं जन्म-जन्म अभिशप्त परिधि
और तुम—केंद्र अद्वैत
तुम हेतु और में हेतु का परिणाम
तुम माटी की सौरभ-सीता, मैं यज्ञ धूम राम।
- पुस्तक : मैथिली कविताएँ (पृष्ठ 28)
- संपादक : ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद
- रचनाकार : धूमकेतु
- प्रकाशन : पहल प्रकाशन
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.