हीराबाई
hirabai
एक
लोग कहते हैं :
हीरामन और हीराबाई
साथ ही आए थे धरती पर
साथ ही गढ़ा था प्रकृति ने उनको
दोनों एक साथ हँसे-रोए
मीता कहा एक दूसरे को
फिर एक दिन ऐसा आया
जब हीरामन ने हीराबाई को अनमोल बताया
नाजुक कलियों जैसे उसे अपनी बाँहों में सुलाया
फिर हौले से तिजोरी में सँभाल कर रख दिया—
क़ीमती रत्न के मानिंद
समय-समय पर ढालता रहा उसे—
अपने इच्छानुरूप साँचों में
सदियाँ बीत गईं
ख़ुद को अनमोल मान इतराती
तब से तिजोरी में ही बंद है हीराबाई
कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि
हीरामन के भेष में अमानुष था वह
सच्चा हीरामन तो आज भी
तिजोरी में नहीं
दिल में लिए फिरता है हीराबाई को।
दो
तुम जानती थीं हीराबाई
हीरामन नहीं हो सकता कभी तुम्हारा
कैसे कह पातीं तुम अपने बीते कल को—
हीरामन से
तुममें जो कुँवारेपन की
उम्मीद लगाए बैठा था
तुम जानती थीं हीराबाई
बीते कल का सच
भारी है तुम्हारे दिल के सच से
और उसकी कड़वाहट
तुम्हारे मधुर प्रेम की मिठास से।
समझती थीं तुम बेहद गहराई से…
हीरामन को पाकर
खो दोगी तुम
उसके सपनों की हीराबाई को
‘मीता’ कहा था तुमने हीरामन को
क्या तुम भूल गई थीं हीराबाई
क्या कहा हीरामन ने :
‘‘औरत और मर्द के नाम में बहुत फ़र्क़ होता है…’’
सदियों से चली आ रही है
यह परंपरा जिसमें
हीरामन कभी हीराबाई हो ही नहीं सकता
इस गहरी खाई के होते हुए
भला तुम्हीं बताओ
कैसे ‘मीता’ बन पाता हीरामन।
तीन
हीरामन का भेष धर
लड़ते रहे आपस में उम्र भर
हीराबाई की आत्मा को
लहूलुहान कर उसे जीतने वालों
तुम्हारे पुरखों ने भी कभी जीता था
जुए में किसी हीराबाई को
महाभारत के पन्नों में
अतुलनीय बल का प्रदर्शन कर
पितामह भीष्म भी जीत लाए थे
अपने भाइयों के लिए उसे
रामायण में बालि ने जीता था
सुग्रीव से हीराबाई को
फ़ेहरिस्त लंबी है—
जीत दर्ज कराने वालों की
जीत का जश्न मनाने वालों की
नहीं सीखा इतिहास से आज भी कुछ
हीरामन वेषधारी विषधरों ने कि
हीराबाई पर जीत दर्ज कराना
उसे जीतना तो बिल्कुल भी नहीं है।
चार
तुमने तो किसी का कुछ बिगाड़ा भी नहीं
अहित भी नहीं किया किसी का
फिर वह कौन लोग थे हीराबाई
जो तुम्हारे जीवन के फ़ैसले लेने लगे थे
किसी को अधिकार तो नहीं दिया था तुमने
फिर क्यों डर गई थीं तुम
हीरामन को अपनाने से
तुमने तो जीवन भर सबका मन बहलाया
हँसाया फिर भला तुम ही बताओ
किसी को क्या दिक़्क़त हो सकती थी
ख़ुद के बारे में लिए तुम्हारे एक फैसले से
कौन हैं ये जो तुम्हें गले से लगाते हैं
और तुम्हारे दिल लगाने पर
गला काटने चले आते हैं किसके डर से
हीरामन को अपने दिल में छुपा
काट दी तुमने अपनी पूरी उमर
क्या जिस्मों के सौदागर
तुम्हारा घर बसने से
डरते हैं हीराबाई।
पाँच
सदियाँ बीत गईं
पर वक़्त नहीं बदला…
जानती है हीराबाई
आने वाली हर मुश्किल
उसे बेहतर मालूम है
नहीं समझा पाएगा हीरामन कभी
कुँवारी लड़की से ही शादी करवाने की
ज़िद लेकर बैठी भौजाई को
घर परिवार और भाई को
अपने लोगों और
गाँव-जवार से दूर खड़े हीरामन को पाकर
क्या हीरामन में हीरामन को बचा पाएगी हीराबाई।
छह
हीरामन वेषधारी विषधरों के
चक्रव्यूह में फँस गई है हीराबाई
बाहर निकलने की छटपटाहट में उलझती जा रही…
वह देख रही है : बदस्तूर डूबती अपनी संततियों को
सिया सुकुमारियों को
अदृश्य बेड़ियों में जकड़ी हीराबाई हतप्रभ है
घुटन भरी चीख़ों को सजाकर
पुरस्कृत हो रहे इन विषधरों के हुनर से।
सात
सबका मन बहलाने वाली हीराबाई
क्यों नहीं बहलाया तुमने
हीरामन के मन को
क्या पैसे की खनक नहीं थी वहाँ
क्यों मीता कहा और सँभालकर रखा
उसके बटुए को
साधारण गाड़ीवान ही तो था वह
कोई जमींदार तो नहीं था
क्या दिल दे बैठी थीं तुम हीराबाई
वह कौन-सी विपत्ति आ जाती उस पर
जो तुम दिल में दर्द लेकर
दो पलों को मुकम्मल जीवन
मान घूमती रही दर-ब-दर
और हीरामन की न होकर भी
बनी रही उसी की उम्र भर।
आठ
विदा लेती हुई हीराबाई की बेबस असहाय आँखें
गवाह हैं कि तमाम धन-दौलत एशो-आराम
नहीं जीत सकते कभी उसके मन को
आँखों में हीरामन का सपना लिए
उसे ढूँढ़ रही है हीराबाई—
इस दुनियावी मेले में
आज भी दर-दर भटक रही है हीराबाई
हीरामन के इंतज़ार में
भूल चुकी है वह
आँखें खुलने पर
खो देते हैं सपने
अपना अस्तित्व।
नौ
हीरामन गौतम तो नहीं था जिसकी बेरुख़ी ने
पत्थर की मूरत बना डाला अहिल्या को
वह तो राम भी नहीं था
जो सतीत्व की परीक्षा देते-देते
तुम्हें देनी पड़ती अपने ही प्राणों की आहुति
पांडव भी नहीं था वह कि भरी सभा में उतरते
तुम्हारे वस्त्रों को यूँ ही देखता रह जाए
फिर क्यों नहीं अपनाया तुमने उसे
तुम्हारे उठते क़दम क्यों रुक गए हीराबाई।
- रचनाकार : मणिबेन पटेल
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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