1857 की लड़ाइयाँ जो बहुत दूर की लड़ाइयाँ थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयाँ हैं
ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर ग़लती अपनी ही की हुई लगती है
सुनाई दे जाते हैं ग़दर के नगाड़े और
एक ठेठ हिंदुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुख़बिरों की फुसफुसाहटें
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलक़दमी
हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो
पर यह उन 150 करोड़ रुपयों का शोर नहीं
जो भारत सरकार ने 'आज़ादी की पहली लड़ाई' के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किए हैं
उस प्रधानमंत्री के क़लम से जो आज़ादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफ़ी माँगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर ग़ुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
क़ुरबान करने को तैयार है
यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी-अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचंदों और हरिश्चंद्रों
और उनके वंशजों ने
जो ख़ुद एक बेहतर ग़ुलामी से ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सन् सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेंद्रनाथों, ईश्वरचंदों, सैयद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचंद्रों के मन में
और हिंदी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आई
यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की ख़ुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
सामूहिक क़ब्रों और मरघटों की तरफ़
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?
1857 में मैला-कुचैलापन
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है
लड़ाइयाँ अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से
कई दफ़े तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज़्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नजफ़गढ़ की तरफ़ जाता हूँ
या ठिठककर पूछने लगते हैं बख़्तावरपुर का रास्ता
1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे
कुछ अपनी बताओ
क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय।
- पुस्तक : सरे−शाम (पृष्ठ 161)
- रचनाकार : असद जै़दी
- प्रकाशन : आधार प्रकाशन
- संस्करण : 2014
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