हिमालय-संबंधी पाँच सानेट
himalay sambandhi paanch sanet
एक
मौन हिमगिरि, मैं तुम्हारे बंधनों में,
आज बँध शतदल कमल-सा खिल रहा हूँ!
घाटियों के बीच इन मरकत-वनों में
मैं तुम्हारे मंत्र-स्वर से धुल रहा हूँ!
तन प्रकंपित देवदारु विशाल बनकर
चपल पूर्वा की लहर में झूमता है
मत्त गज-सा। मैं तुम्हारे इस शिखर पर
हूँ खड़ा, मन मुक्त नभ में घूमता है।
सोम-रस जो घाटियों की प्यालियों में
ढलकता, पी अमर होता जा रहा मैं।
स्वर्ण गल अविराम नीलम डालियों से
झर रहा, उसमें अतृप्त नहा रहा मैं।
स्वर तरंगित यह कहाँ से आ रहा है?
प्राण में प्रतिध्वनित हो लहरा रहा है?
दो
मेरा कवि बनकर इस अनंत छवि का प्रहरी
बैठा नभ-आँगन बीच आज इस चोटी पर।
सम्मुख लहराता गहन नीलिमा का सागर,
निर्बंध बह रही है जिसमें यह दृष्टि-तरी।
उठतीं-गिरतीं उन्नत हिम-शिखरों की लहरें,
अनजान तटों से दूर क्षितिज पर टकरातीं।
तैरती दूर से छाया नौकाएँ आतीं—
खोले जलदों के पाल, स्वप्न ये ज्यों बिखरे।
नीले जलनिधि का तट उभरा है हिम-मंडित
उत्तर दिशि की सीमा पर ज्यों प्राचीर धवल।
जिस पर ज्योतित आकाश-दीप-सा ध्रुव शोभन।
हिमगिरि-सागर में यह असीम छवि प्रतिबिंबित;
इस छवि-छाया के चतुर चितेरे नयन विकल,
कर पा न रहे सीमित प्राणों पर लेखन!
तीन
थी पार्वती धरती जलती तप से निर्जल,
था महाकाल ज्यों समाधिस्थ निर्द्वंद्व अचल,
सहसा झंकृत अनंग-धनु से शर छूट पड़े,
बन पंचवाण के पुष्प बरसते थे बादल!
क्षण-भर घाटी की भँवरों में कर आवर्तन,
क्षण-भर शिखरों के उपलों का कर आलिंगन,
इस महाशून्य की डाली से झर-झर शाश्वत
बह रहे पवन की धारा में ये मेघ-सुमन।
क्षण बन दुकूल शृङ्गों का, क्षण परियों का पर,
बन देवदारु का वलय, वनों के बीच बिखर
अधखुले नयन-नभ में तिर-तिर बनते-मिटते
ये कामरूप धन दिवा स्वप्न के फूल सुघर!
किसने फैलाया यह हरीतिमा का दुकूल
बँध पान रहे जिनमें पारद के जलद फूल
चार
कितना उन्नत हिमगिरि, मैं हूँ कितना लघु नर
कितना श्लथ में, कितनी है इसकी विषम डगर
फिर भी जा बैठा हूँ मैं इसकी चोटी पर
पग से अंकित करता मानव-अभियान अमर
मैं पंखहीन पक्षी-सा इस नभ के आँगन
कितनी गतिमय निर्बंध गगनचारी ये घन
फिर भी इनकी साँसों में भरकर आलिंगन
इतिहास लिख रहा हूँ मैं मानव का नूतन
कितना सीमित मैं, है असीम यह नभ-मंडल
कितना झँझा-विद्युत्-पूरित इसका अंचल
फिर भी नभ पर लिख-लिख स्वर के अक्षर उज्ज्वल
गुंजित करता मैं मानव के जय-गान विमल
जय-विश्वासी पुरुष अतिथि हूँ दूरागत
हँस-हँस करती यह प्रकृति-वधू मेरा स्वागत।
पाँच
पत्थर भी है कितना रसमय यह जान गया,
इस जड़ में भी है चेतनता, मैं मान गया,
पत्थर की छाती पर सोई है हरियाली
भुज-बंधन में कस रही लता पहचान गया!
मानिक-मदिरा से भरी घाटियों की प्याली
मधुबालाएँ चंपई धूप, छाया काली,
वासना नहीं बुझती फिर भी पीकर क्षण-क्षण,
काँपते खड़े शत देवदारु बन रोमाली!
घन की उड़ती परियाँ करती हैं आलिंगन,
पथराए अधरों का करती विद्युत् चुंबन,
बहने लगता गिरि-शिरा-शिरा में रस मंथर,
खिल जाते हैं तन में लघु-लघु मुसकान-सुमन
निर्झर नदियों में गल बहता जिसका अंतर
जाने क्यों फिर भी कहलाता वह गिरि पत्थर!
- पुस्तक : दिवालोक (पृष्ठ 64)
- रचनाकार : शंभुनाथ सिंह
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1953
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