आज एक बिनती करैं तुम सों रघुकुलराय।
कौन दोस लखि नाथ तुम दियो हमहिं बिसराय॥
अथवा हमहीं आप कहें भूले डोलत नाथ।
चरण कमल में नाथ के अब नहिं हमरो माथ॥
सांची को दोहून में दीजे हमैं बताय।
तुम भूले वा हम फिरहिं निज नाथहिं बिसराय।
जो प्रभु हम कहँ चित्त सों दीयो नाहि बिसारि।
तौ केहि कारण आज यह दुर्गति नाथ हमारि॥
केहि कारण पावत नहीं आधे पेटहु नाज।
कौन पाप सों बसन बिन ढकन न पावहिं लाज॥
सीत सतावत सीत महं अरु ग्रीसम महं घाम।
भीजत ही पावस कटत कौन पाप सों राम?
केते बालक दूध के बिना अन्न कौर।
रोय-रोय जी देत हैं कहा सुनावें और॥
कौन पाप तें नाथ यह जनमत हम घर आय।
दूध गयो पै अन्नहू मिलत न तिन कहँ हाय॥
केते बालक डोलते माता पिता बिहीन।
एक कौर के फेर महं घर-घर आगे दीन॥
मरी मात की देह कों गीध रहे बहु खाय।
ताही सों यक दूध को सिसू रह्यो लपटाय॥
जहं-तहं नर कंकाल लागे दीखत ढेर।
नरन पसुन के हाड़ सों भूमि छई चहुँ फेर॥
हरे राम केहि पाप ते भारत भूमि मझार।
हाड़न की चक्की चलैं हाड़न को व्यापार॥
अब या सुखमय भूमि महं नाहीं सुख को लेस।
हाड़ चाम पूरित भयो अन्न दूध को देस॥
बार-बार मारि परत बारहिं बार अकाल।
काल फिरत नित सीस पै खोले गाल कराल॥
यह दुर्गति नर देह की कौन पाप ते राम।
साच कहो क्या होई है अब हमरो परिनाम॥
बार-बार जिय में उठत अब तो यहै विचार।
ऐसे जीवन ख़्वार पै लाख-लाख धिक्कार॥
फिरत पेट के फेर महं सूकर खान समान।
केहि कारन नर तनु दियो कृपासिंधु भगवान॥
हमरे नर तनु ते भले कीट पतंग बिहंग।
हमरे नर तनु ते भले बानर भालु कुरंग॥
साख सुनी हम रामप्रभु ज़ोर आपको पाय।
यक बानर गढ़ लंक महं दीनी लंक जलाय॥
और सुनी कपि सेन पुनि चढ़ी लंक पै धाय।
पाथर खोदि समुद्र पै सेतु दियो फैलाय॥
काँप उठे राछस सबै डगडग डोली लंक।
फिरत राम के जोर में बानर भालु निसंक॥
खर्ब कियो दससीस को गर्ब आप महाराज।
सुरगन की चाही करी दियो विभीखन राज॥
और सुनी हम गीध इक लर्यो तुम्हारे हेत।
जबलों तन महं बल रह्यो तज्यो नाहिं रन खेत॥
बानर गीधहुँ ते गए प्रभु हम नरतनु पाय।
नाथ तुम्हारे एकहू काम न आए हाय॥
नाथ कबहुँ कछु आइ हैं हम हूँ तुम्हरे काम।
ऐसो अवसर हुँ कबहुँ पावेंगे हम राम॥
तुम नहिं भूले रामप्रभु हमहीं भूले हाय।
जहाँ-तहाँ मारे फिरैं तुम सो नाथ बिहाय॥
तन महं शक्ति न हीय महं भक्ति हमारे राम।
अधम निकम्मे आलसी पाजी डील हराम॥
डूबत अंबु-अगाध महं बेगि उबारो आय।
हम पतितन को नाथ बिन-नाहिन आन उपाय॥
अब तुमसों बिनती यहै राम ग़रीबनवाज़।
इन दुखियन अंखियान महं बसै आपको राज॥
जहाँ मरी को डर नहीं अरु अकाल को त्रास।
जहाँ करै सुख संपदा बारह मास निवास॥
जहाँ प्रबल को बल नहीं अरु निबल की हाय।
एक बार सो दृश्य पुनि आंखिन देहु दिखाय॥
करहिं दसहरो आपको दु:ख ताप सब भूल।
पुनि भारत सुखमय करौ होहु राम अनुकूल॥
पुनि हिंदुन के हीय को बाढ़ै हर्ष हुलास।
बनै रहैं प्रभु आपके चरण कमल के दास॥
- पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 586)
- संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
- रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
- प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
- संस्करण : 1950
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