हे! राम
he! ram
जबकि सड़क के बाईं ओर रहता था हमारा ईश्वर
और उससे जुड़े तमाम ख़तरे
वो सोचता वही हमारी अंतिम शरण
कि जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को मिल जाए तरुवर की छाया
उसकी उम्मीद के उलट हम मुड़ जाते 'राइटसाइड'
'...शरणम्गच्छामि' में हम वैसे ही भरते वोडॉट्स
जैसे कि सब्ज़ी में नमक स्वादानुसार...
हो सकता है मिज़ारू* ने देखा हो दुनिया का क्रूरतम दृश्य और मिकाज़ारू* ने सुनी हो विकसित सभ्यताओं की सबसे भद्दी गाली
जो शायद माज़ारू* के ही मुँह से निकली हो
हो सकता है
बहुत मुमकिन है कि पछतावे की सड़क पर चल कर तीनों उस धोतीधारी महात्मा की शरण पहुँचे हों
समय लटकता था उस संत की कमर पर
लाठी की टेक पर टिकता मनुष्यता का गान
आँखों पर ऐनक थी साफ़-साफ़ देख सकने वाली
हर युद्ध पर डटे हुए सत्य और अहिंसा नाम के दो वफ़ादार सैनिक
फिर एक दिन एक धाँय से वो लाठी दूर जा छिटकी
सुर खो बैठा टेक पर टिका हुआ गान
शायद सवा या साढ़े पाँच बजे थे कि जब चटक गया समय अटूट
ऐनक पर घिर आई ढलती हुई लाल साँझ
उस रोज़ महात्मा मर्यादा पुरुषोत्तम की शरण चले गए
समय की चटकन के बहुत पहले किसी पुराने कैलेंडर पर एक घटना हुई है छोटी-सी
एक थे मर्यादा पुरुषोत्तम
पुरुषों में उत्तम जिनके पास नब्बे डिग्री के आदर्श थे
परशुराम के धनुष-सी भारी मर्यादा
और बाईं तरफ़ साथ चलती परछाईं स्त्री
हल्की स्त्री फूल-सी
फिर एक दिन भरी सभा में कोई मुख़न्नसज़ुबान कीचड़ उछाल देती है
किस परछाईं की देह पर मलते हैं कीचड़
जो जन्मजात थी विदेही
इतनी तेज़ तो उस स्वर्ण-मृग की छलाँग भी नहीं
जितना तेज़ जनता के राजा का फ़ैसला था
झटपट न्याय कर मर्यादा पुरुषोत्तम मंदिर की शरण चले गए
समय गड्डमड्ड हो जाता है कथाओं में घटनाओं में स्वप्न में सत्य में
कि समय पढ़ने वाली ऐनकों में लाल साँझें पसरी हैं
कहीं भी नहीं मिलता वो समय जिसे हकीम कहते मरहम
एक खरोंच भरे चेहरे वाला अपराधी स्मृतियों में दर्ज है
गड्डमड्ड है समय
मिली-जुली कथाएँ सब कौन यहाँ कौन वहाँ कौन कहाँ
कौन पहले कौन बाद
आगे पीछे गड्डमड्ड चाय की पत्ती पोशमपाश
एक औघड़ की उलझी जटा पर अटका चंद्रमा समय की उलझनों पर प्रश्नवाचक चिन्ह है
नानी हाथीदाँत के कंघे से सुलझा देती थी बाल
जाने कौन सी कंघी से समय सुलझता है
किस देव का भरोसा करते किस नायक की राह तकते
आख़िरकार सत्य-अहिंसा कुलाँचे भरते प्रतिज्ञाओं की शरण चले गए
आदर्श-मर्यादा मानपूर्वक धर्मग्रंथों की शरण चले गए
गाली पहने परछाईं औरत धरती की शरण चली गई
अनंत समय से देख रहे सब खेल वो मासूम तीनों
कब पत्थर में ढल गए
मिज़ारूमिकाज़ारूमाज़ारू थक-हार कर बाज़ारों की शरण चले गए
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*जापानी लोककथाओं के तीन बंदर जो न बुरा देखते, न बुरा सुनते, न बुरा बोलते...
- रचनाकार : बाबुषा कोहली
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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