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हे पिता

he pita

शिरीष कुमार मौर्य

और अधिकशिरीष कुमार मौर्य

    तुम अभी यहीं हो

    अभी नहीं हो

    यहाँ हो

    मेरे सामने की ख़ाली कुर्सी पर

    कि वहाँ हो

    पुश्तैनी ज़मीन पर अपने तिमंज़िला भवन में

    जिसे पता नहीं अपने सामंती अहंकार में बनवाया तुमने

    या किसी पछतावे में

    वह मकान जो तीन स्तरों वाला यथार्थ है तुम्हारा

    मैं बहुत दूर हूँ उससे

    जानते हो तुम मेरा एक ही यथार्थ है

    जहाँ भी हो पर शुक्र है पिता

    तुम हो

    पैंसठ की उम्र में भी पूरी ताक़त और अपने सच्चे-झूठे ग़ुरूर में

    धरती पर पग धरते

    तुम हो

    है तुम्हारी क्षुब्धता

    उतनी ही साबुत और दुरुस्त

    मैं जागर लगाकर नहीं बुला सकता तुम्हें

    समकालीन जीवन के यज्ञ में

    तब भी

    हे पिता तुम आओ

    आओ

    देखो कि कोशिश भर फल-फूल रही है तुम्हारी संतति

    आओ

    एक बार तो पिता की तरह आओ तुम

    अधिकार मिले कि मैं मिलूँ पुत्र की तरह तुमसे

    हे पिता,

    तुम्हारी भीतरी भूमि के देवताओं के नाम

    तीनों नाड़ियों के उद्गम पर बुलाता हूँ तुम्हें

    तुम्हारी आँखों में आँखें डाल

    पूछता हूँ तुमसे

    कहाँ हो

    कहाँ हो

    जहाँ हो, क्यों हो

    जहाँ नहीं हो, क्यों नहीं हो

    हे पिता,

    भले यज्ञ हो अभी मेरा तुम्हें बुलाना

    पर यह जो है

    इसमें बहुत गाढ़ा है धुआँ

    हे पिता

    मेरी आँखें जलती हैं

    तुम सुनते क्यों नहीं हो

    देखो मेरे रक्त में भी तुम ख़ामोश खड़े हो

    तुम बड़े हो

    हे पिता तुम बहुत बड़े हो

    उस हिमवान से भी जिसकी छाया में पलता है मेरा जीवन

    पर देखो तुम्हारी ऊँचाइयों पर

    एक मनुष्य

    ठिठुरता है

    उसका अंग-अंग गलता है

    तुम्हारे ढलते काँधों पर सिर रखकर

    होना चाहता हूँ

    जागा हूँ बरसों का हो सके तो कुछ देर सोना चाहता हूँ

    कुछ और मज़बूत कर लेना देह

    हे पिता

    दिल पक्का पथरीला

    बचपन से लेकर अब तक

    सूखे हैं मेरे होंठ

    पपड़ियाँ उतरती हैं उनसे

    रक्त छलकता है

    कंठ में काँटे-से गड़ते हैं

    हे पिता,

    ये जो मेरे होने के कुछ भव्य दृश्य से

    दिखते हैं तुमको

    अनगिन अदृश्य घाव हैं इनमें

    लगातार वे रिसते हैं

    सड़ते हैं

    बहुत बदबू है पिता

    यहाँ बहुत बदबू है

    मेरी धरा पर

    वनस्पतियाँ सब विलोप गईं

    जंगल कोयला हो गए

    जीवाश्म हो चलीं स्मृतियाँ

    मैं हूँ कि नहीं हूँ

    पर अस्थियाँ हैं

    और उम्मीद है कि तुम आओगे

    सकुचाओ मत

    तुम आओ

    देखो, देखो कि आज भी नवजात

    शिशुवत

    मैं बेबस और नग्न पड़ा हूँ

    तुम्हारे मन में

    आओ

    आओ

    कि माँ की कोख नहीं है अब दुनिया

    और अड़तीस बरस का ये जीव

    अट नहीं पा रहा है

    जीवन में

    हे पिता

    सुन रहे हो

    पिता हे!

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिरीष कुमार मौर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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