एक
हर शाम की तरह उस शाम भी
जब काम से लौट रही थीं औरतें
ननद ने भौजाई से और दिनों की तरह ही
की थी ठिठोली—
“अबकी ख़ूब खेलेंगे फाग, भौजी! तुम्हरे संग,
परसाल तो तुम गाभिन रहीं।”
भौजाई की आँखों से बरसा था
ननद के लिए स्नेह—
“इस फाग में तू भी ख़ूब गदराई है, ननदी!
ज़रा बच के रहियो बसंती हवा से।”
ज़ोर-ज़ोर से मृदंग पर थाप देने लगी थीं मटर की लतरें,
मदमस्त हो सरसों के फूलों पर झूमने लगी थी हवा;
शरम से लाल हो गया था क्षितिज का चेहरा।
दो
पगडंडी की हवा उदास है।
अभी-अभी जो मज़दूर औरतें गुज़री थीं
उन पगडंडियों से होकर,
बिखरी हैं चारों ओर
उनके केशों की ख़ुशबू,
अभी तक बाक़ी है उनके पाँवों के निशान।
चाँद की छाती पर पाँव रखकर
उसी रात उतरे थे हत्यारे,
रौंद दिया था उन्होंने रजनी का आँचल।
शाम तक जिनके गीत गूँजते थे
खेत-खलिहानों में,
रात के सन्नाटे में
जलाई गई होली उनके सपनों की।
सपने जल रहे थे
और रात उदास थी,
उदास थी उस रात फागुन की हवा भी;
ग़ुम हो गया था नदियों से कलकल ध्वनियों का शोर।
तीन
क्यों उदास थी फागुन की हवा?
क्यों फगुवा में उदास रहे मृदंग, ढोल, झाल?
क्यों नहीं गाई गई होली
‘शंकर बिगहा’ में?
क्यों दस महीने के ‘मुन्ना पासवान’ पर
जिसकी बिखरी पड़ी थीं अँतड़ियाँ
बरसाई गईं एक नहीं
बीस-बीस गोलियाँ?
जबकि उस बच्चे की आँखों में था सिर्फ़
माँ का इंतज़ार
और उसके होंठ माँ के स्तनों को
रहे थे तलाश।
भौजाई को रंग लगाने का सपना लिए
क्यों चली गई ननद?
क्यों छलनी होने के बाद भी
बचे थे दूध से तने हुए स्तन,
जिनसे रिस रहा था धीरे-धीरे दूध
जो बेटे के मुँह से नहीं
उसकी अँतड़ियों से चिपट रहा था।
(इन प्रश्नों से बाहर
कौन से सच को परोस रही है सत्ता?)
चार
इतिहास के पन्नों में
शायद कहीं न दर्ज हो
काम से लौट रही उन औरतों की
आपस की छेड़छाड़ की बातें।
शायद ही लोग जान पाएँ
कि इतनी थकान और कष्टों के बीच
कैसे बचाकर रखा
उन्होंने जीवन-संगीत।
शायद अख़बारी रपट से ज़्यादा
महत्व न पा सके
‘शंकर बिगहा’ की वह रात।
शायद कुछ ही दिनों में
भुला दी जाएँ
उन लंपटों की सारी करतूतें,
जिन्होंने रात के सन्नाटे में
कायरों की तरह रौंद दी
उनके सपनों की दुनिया।
(यही तो कर रही है सत्ता
वह हमारी स्मृतियों को लील जाना चाहती है)
पाँच
फागुन की हवा उदास है।
लंपटो!
तुम्हें पता नहीं हवा की उदासी का राज।
हर आने वाला ईमानदार कवि
हर पीढ़ी को याद दिलाएगा
क्यों उदास थी फागुन की हवा।
हर कवि दुहराएगा यह वायदा—
“भौजी! जब तक रहेगी यह पृथ्वी
रहेंगे तुम्हारे सपने...”
हर पीढ़ी दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाएगी यह सौग़ात,
पूरा होगा ननद के होली खेलने का सपना;
बच्चे के होंठ माँ के स्तन ढूँढ़ ही लेंगे,
उनकी दहाड़ की तरह ही
ख़त्म हो जाएगी उनकी गोलियों की भी दहाड़।
इस हत्याकांड के बाद भी
यह सच बचा ही रह जाएगा
कि ‘शंकर बिगहा’ इतिहास के पन्नों में दर्ज़ होगा।
और वे जो गोलियों से इतिहास रचना चाह रहे हैं,
अख़बारी कतरनों को जोड़-जोड़कर
इतिहास का गर्व पालेंगे।
जब तक यह सच हो नहीं जाता
तब तक हम बचाकर रखेंगे
ननद-भौजाई की चुहलबाज़ी,
झाल-मृदंग पर झूमते अपने
सोहराई काका के गीत,
जो हर फागुन में झूम-झूमकर गाते थे—
“भर फागुन बुढ़वा देवर लागे, भर फागुन...”
और इस सच को
कि क्यों उस दिन उदास थी
फागुन की हवा।
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‘शंकर बिगहा’ में दलितों की सामूहिक हत्या होली के एक दिन पहले सामंतों की निजी सेना के द्वारा की गई थी। ‘शंकर बिगहा’ बिहार के जहानाबाद ज़िले का एक गाँव है।
- पुस्तक : आशा इतिहास से संवाद है (पृष्ठ 64)
- रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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