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हरिहर जेठालाल ज़रीवाला

harihar jethalal zariwala

रंजना मिश्र

रंजना मिश्र

हरिहर जेठालाल ज़रीवाला

रंजना मिश्र

और अधिकरंजना मिश्र

     

    एक

    दुख का रंग पर्दे पर उन दिनों, गुलाबी था
    नायिकाएँ दुख में भी गुलाबी नज़र आतीं
    नायक मरून सिल्क के लुंगी-कुर्ते में
    उसी रंग की शराब के सहारे
    प्रेम में हार का गम ग़लत किया करते
    प्रेम अतिरंजना, दुख नाटकीयता और ख़ुशी
    मिलावट के रंगों से चिपचिपाती थी
    तुम वहीं थे न उन दिनों हरि भाई?

    दो

    पहले पहल देखा था मैंने तुम्हें इन्हीं दिनों
    अपनी मोटी कमर पर उतनी ही चौड़ी बेल्ट कसे
    छींटदार शर्ट के चौड़े कॉलर के ऊपर नज़र आती
    छोटी-सी गर्दन वाले चेहरे पर जड़ी उन आँखों के साथ
    जो अक्सर चेहरे से निकलकर पूरी पृथ्वी को अपनी छाँह में ले लेतीं
    वह हँसी जो मुस्कुराते हुए भी न मुस्कुराने का ढब जानती थीं
    खिलखिलाती आवाज़ कई बार दरअसल आँसुओं से भीगी नज़र आती
    लौटा लाते थे तुम दुख को दुख के, हँसी को हँसी के
    और इंसान को उसी इंसान के घर
    पूरी टूट-फूट और मरम्मत के साथ
    धूरी पर घूमती हुई पृथ्वी
    लौटा लाती है जैसे
    दिन को दिन के और रात को रात के ही घर

    तीन

    उन दिनों मैं भूल गई थी पंजाब के उस कसरती नौजवान को भी
    जिसकी हँसी पर क़ुर्बान हम कॉलेज कैंटीन की दीवारें उसके नाम से रंग दिया करते
    पर सपनों में उसकी बग़ल ख़ुद को पाने में हिचकिचाते

    (हर उम्र के अपने संशय होते हैं)

    पर तुम्हारी कहन में बस इंसान का होना ही पूरा था
    अपनी पूरी विडंबना और मधुरता के साथ
    तुम कहते थे दरअसल हर इंसान की कथा
    जो नायक नहीं था
    और बसते थे उस चमकती दुनिया में रूह की तरह
    या कि रेशम के कीड़े की तरह
    जो अपने ही धागे से कसता जाता है लगातार
    तुम अपने ही प्यार में थे हरिभाई
    या किसी स्वप्न से दंशित

    चार

    शतरंज की मोहरें तुमसे बेहतर कौन जान पाया होगा
    तुमने ही तो दी थी
    ख़ुद को शह और मात
    उम्र के ठीक सैंतालीसवें साल में
    इतने किरदारों की इतनी उमरें जीकर तुम थक चले थे शायद
    सो गए कोई अधूरी कहानी बीच में ही छोड़कर
    तुमने ही हमें बताया था
    नायकों के नायक होने से पहले की सीढ़ी
    उनका इंसान हो जाना है
    और प्रेम, दुख, हास्य और सहजता में रँग कर
    चाँदनी रातों में उन नक़्क़ाशीदार बेल-बूटों की कथा कहनी है
    जो दिन में नज़र नहीं आते
    तुम ही तो जानते थे बचे हुए को बचाए ले जाने का हुनर
    औसत को बेहतर और बेहतर को असाधारण बनाने का हुनर
    अपने जोड़ी भर पैरों पर पूरी ऊँचाई से खड़े तुम
    जानते थे दुख को उसकी पूरी उज्ज्वलता में बरतने का हुनर
    उन दिनों भी
    जब दुख का रंग गुलाबी था!

    स्रोत :
    • रचनाकार : रंजना मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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