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हर्गिज़ नहीं!

hargiz nahin!

सौम्य मालवीय

सौम्य मालवीय

हर्गिज़ नहीं!

सौम्य मालवीय

और अधिकसौम्य मालवीय

    कितना ओवररेटेड है यार ये प्यार

    हम तुम दीवानों से उड़ते रहें

    दो जिस्म एक जान की सूरत

    यहाँ-वहाँ फिरते रहें

    हमारे बीच मुसलसल खिलती रहे बहार

    एहसासों के फूल सुबो-शाम गिरते रहें

    क्या हो सकता है ऐसा कि

    हमारी दुनिया हम तक ही सिमटी रहे?

    कोई काम हो, मसरूफ़ियत

    बस आशिक़ों में ही हमारी गिनती रहे?

    और हम इसे आग के दरिया जैसा कोई नाम दें,

    करें कुछ, कुछ इसे क़याम दें

    कुछ भी हो हमारे बीच लगातार

    घनी हो रही ज़िंदगी को 'प्यार' कहना

    कुछ नाकाफ़ी-सा नहीं होगा?

    रोज़ाना की आमदोरफ़्त,

    गुज़र रही उम्र का गाढ़ापन,

    सुख, दुःख, उदासियाँ, उम्मीदें,

    आपस में पिरोई मुश्किलें और राहतें,

    सड़कें, चौराहे, गाँव, शहर,

    रेलगाड़ियाँ और हवाई जहाज़

    लम्हे, वक़्फ़े, अर्से

    कितना कुछ गुज़र जाता है हमसे होकर

    हमारे बीच एक अलसाये-से इत्मीनान,

    हल्के भूरे से भरोसे, सँवलायी-सी हरियाली,

    और बेपनाह बेख़ुदी में डूबे जंगल के दायरे खींचता हुआ

    हम कभी इस जंगल से निकलते हैं,

    कभी खोए रहते हैं,

    नहीं तो इसकी तहज़ीब के मुलायम धुँधलके में

    गुज़र-बसर होती रहती है

    हम भला उसे क्या नाम दें

    जो हमसे एक ज़िद्दी बेल-सा लिपट गया है

    उसे कैसे पुकारें जो हमारे भीतर रह-रहकर बोलता है

    हम तो बस अपने हिस्से की धुँध थामे

    दो दरख़्तों की तरह पास-पास खड़े हैं

    जिनकी जड़ें आपस में गुँथी हुई हैं

    हम धूप और पानी को मिलकर गाते हैं,

    साथ झूमते, हँसते, साथ रोते हैं,

    महज़ प्यार तो हम क़तई नहीं करते

    वाक़ई नहीं करते

    हर्गिज़ नहीं, यक़ीनन नहीं करते!!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौम्य मालवीय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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