हमें दंगों पर कविता लिखनी है
hamein dangon par kawita likhni hai
जब नींद के निचाट अँधेरे में
सेंध लगा रहे थे सपने
और बच्चों की हँसी से गुदगुदा उठी थी
मन की देह,
हम जाने किन षड्यंत्रों की ओट में बैठे
मंत्रणा करते रहे!
व्यंजना के लुब्ध पथ पर
क्रियापदों के झुंड और धूल भरे रूपकों से बचते
जब उभर रहे थे दीप्त विचार
तब हम कविता के गेस्ट हाउस में
पान-पात्र पर भिनभिनाती मक्खियाँ उड़ा रहे थे!
जब मशालें लेकर चलने का वक़्त आया
वक़्त आया रास्ता तय करने का
जब लपटों और धुएँ से भर गए रास्ते
हमने कहा—हमें घर जाने दो
हमें दंगों पर कविता लिखनी है!
- रचनाकार : उत्पल बैनर्जी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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