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गुमशुदा भैंस की याद

gumshuda bhains ki yaad

राकेश रंजन

राकेश रंजन

गुमशुदा भैंस की याद

राकेश रंजन

और अधिकराकेश रंजन

    वह थी तो कितना कुछ था!

    ठोस सींगों-सा चमकता था हमारा साहस

    पुष्ट थनों-सी दमकती थी हमारी ख़ुशी!

    रह-रह चुकरती थी

    गूँज-गूँज उठता था घर-गाँव

    खाती-पगुराती थी

    देती थी बदले में बहुत-बहुत ज़्यादा

    इतना

    कि घर से लेकर

    बाहर तक के लोगों को पोसता था

    उसका तरल वात्सल्य

    ज़्यादातर ख़ुश रहती थी

    चाहती नहीं थी ज़्यादा कुछ

    मगर कभी-कभार

    दिख जाते थे उसके नथुनों पर

    आँसू के दाग़ ज़रा गहरे

    वह थी तो उसका 'होना'

    घर का कोना-कोना करता था उजियार

    अब उसके होने के अँधेरे में

    ख़ाली खूँटे से लगती है ठेस बार-बार

    नहीं, वह ख़ुद नहीं गई

    ज्ञान-प्राप्ति-हित...ध्यान-साधना-निमित्त

    सिद्धार्थ की तरह

    उसे नहीं करना था

    किसी धर्म का प्रवर्तन

    कोई तुलसीदास नहीं थी वह

    कि रात-बिरात किसी बात से बिंधकर

    निकल पड़ी हो

    भवभीति-त्राण-हित

    रामचरण में प्राण रमाने

    वह तो एक भोली-भाली भैंस थी–

    बेचारी एकदम गऊ!

    कभी पूँछ भी फटकारती थी

    तो आदमी बचाके!

    स्वेच्छा से तो वह स्वर्ग भी जाती

    देवराज भी आते और कहते कि चलो

    रहो सुरलोक में राजमहिषी बनकर

    तो वह साफ़ मुकर जाती

    वहाँ कहाँ मिलती उसे मानुष-गंध

    कहाँ मिलता

    अन्न और पसीने की ख़ुशबू से

    भरा-पूरा ऐसा घर-बार

    जिसकी ज़मीन पर निछावर हो

    गोबर का प्यार!

    कौन ले गया

    हमारे घर का ग़ुरूर

    हमारी आँखों का तारा...

    आँखें भर आती हैं

    बिलख-बिलख रोता जब पाड़ा बेचारा!

    स्रोत :
    • रचनाकार : राकेश रंजन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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