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गुम हुई वह यकायक

gum hui wo yakayak

ब्रज श्रीवात्सव

ब्रज श्रीवात्सव

गुम हुई वह यकायक

ब्रज श्रीवात्सव

रोज़ाना मेरे पास बैठा करती एक सुगंध

मैं उसे पढ़ाता उसका विज्ञान

वह भौतिकता से ऊबती और सुनना चाहती

ज़िक्र एक फूल का

मैं उसकी भीतरी दुनिया को समझ रहा होता गुपचुप

अपने पाँवों से नाप रही होती

वह करवट बदलते समय को

अनजाने में हो जाती थी प्रविष्ट

उससे मिलने वालों के हृदय में

वह बोलती थी तो जैसे बजने लगता था सितार

उसकी आँखों में ख़ामोश ठिकाने हरकत करते रहते

कभी-कभी वह कुछ तय करती

और आज़माती अपने सौंदर्य को

कामयाबी पर मुस्कराती और फ़ख़्र करती कि वह लड़की है

पत्र भेजती फूल को फिर यह भूलना उसे एक खेल लगता

उठी पास से विदा करते हुए वह डूबी होती गहरी तसल्ली में

गुम हुई वह यकायक दृश्य से पर जा नहीं सकी साँस से अलग

एकाकीपन में बैठती स्मृति के नज़दीक़ और टीस देती

स्वप्न में आकर कहती चाहिए है उसे अब भी एक रोशनदान

निचले कमरों के रोशनदारों को बंद कर आती जा रही और ऊपर

रोज़ाना आकर नहीं बैठती मेरे पास वह सुगंध

कभी-कभार भी नहीं मान पाता अब मैं ख़ुद को फूल

स्रोत :
  • पुस्तक : साक्षात्कार 275 (पृष्ठ 59)
  • संपादक : भगवत रावत
  • रचनाकार : ब्रज श्रीवास्तव

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