एक
कभी-कभी
खिड़की के पास बैठकर
नम हवा की लहर पर वह
रबारी शैली की कढ़ाई का काम करती है।
मानो मैं पक्के रंग के डोरे की रील होऊँ
इस तरह वह मेरे मर्मस्थल में से उधेड़ती जाती है
मनपसंद रंग का धागा—
एकदम अंदर से खींचकर।
इधर मैं उकलता जाता हूँ
और उधर बनता जाता है
कलाधर मोर।
चोर की तरह दबे पाँव
आषाढ़ मेरी पीठ के पीछे से सरक जाता है
परपुरुष की भाँति।
दो
छिटक जाता है
हाथ का पात्र
और सारे कमरे में
बिखर जाता है रामदाना।
चौक में
मानो ग्रह-नक्षत्र बिखर गए हों,
इतनी सावधानी से
आहिस्ते-आहिस्ते
एक-एक दाना बीनकर, साफ़ करके, भर लेती है
साफ़-सुथरे पारदर्शक अमृतबान में।
ऐसे तो कितनी ही बार होता है।
बार-बार बिखर जाना
फिर सिमटकर सम पर आ जाना
एकदम पारदर्शकता में : अमृतबान में बैठे-बैठे
तुम्हारा प्रतिपल का ऋणी
मैं देखा करता हूँ अपना संसार, ओ गृहिणी…!
तीन
संसार में केवल दो ही रंग बचे हैं :
एक धूप का और दूसरा छाया का।
फैली हुई मौलश्री की बौनी परछाईं पर
मूँगफली का दाना फोड़ रही है ध्यानस्थ गिलहरी।
ऊपर उठे
नन्हे हाथ पर उग आए हैं खिलवाड़ी पत्ते
और सोनचंपे की झुकी डाल पर
रिबन की बहुरूपी कलगियाँ : घड़ी में फूल, घड़ी में पंखी।
भारविहीन
भारी-भरकम तना आड़ा पड़ा है बग़ीचे में—
तो भी ज्यों की त्यों खड़ी है
दूब की हरी कोमलता, विनम्र भाव से।
वस्तुएँ
भले ही लगती हों,
परस्पर जुड़ी हुईं
परंतु होती हैं कितनी अलग और अलमस्त
और फिर, झुँझलाहट से भर दे—इतनी बेबूझ
इस धूप में।
समभाव से यह परछाईं सबको तदाकार कर देती है।
दूर एक पत्थर पर
मुश्किल रंग धारण करके एक गिरगिट
गर्दन ऊँची किए बैठा है, तनिक भी हिले-डुले बिना।
इस सृष्टि में मैं अकेला ही क्यों इतना अधिक चंचल हूँ?
- पुस्तक : सदानीरा
- संपादक : अविनाश मिश्र
- रचनाकार : हरीश मीनाश्रु
- प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका
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