आख़िर क्या मतलब है दूर बैठे उस ग्रह को
कि वह तय करे कि क्या होगा अभी इस वक्त़ मेरे साथ
अजीब बात है कि अपने ही छल्लों में फँसा शनि
चित पट करे कि गिलास का यह पानी मेरा कंठ
भिगोए या नहीं
और चावल का बोरा जिसके दाने-दाने पर लिखा है
खाने वाले का नाम (कितनी मेहनत है लिखने वाले को)
वहाँ लिखे या छोड़ दे मेरा नाम
ऐसा क्यों लग रहा है मानो मैं झुनझुने का कंकड़
पक्की सिलाई के पहले कच्ची सिलाई का लंगड़
आख़िर क्या मतलब है इसका कि इतने-इतने ग्रह-नक्षत्र
अभी रात के दो बजे
मेरा नक़्शा पसारे योजना बनाएँ जँभाइयाँ लेते
कि अगली सुबह क्या हश्र हो इस पुतले का
बम से मरे या गोली से
और मैं अनजान कपड़ा बदलती किशोरी-सा
जिसे दूर छत से घूरता हो कोई अधेड़ साँस रोक
आख़िर क्या मतलब है दूर बैठे उस ग्रह को
कि परदे के पीछे से मेरे बोल बताए
मैं मुँह चलाऊँ वो गाना गाए
कब कहाँ हँसना रोना बताए
हाथ से छीन कर पूआ ठूँस से बर्गर-पिज्जा
और अंतिम दृश्य के ठीक पहले जब होंठ पर हों
होंठ
कि यवनिका-प्रस्थान
जब देखो तब डालता है लक्कड़
जहाँ-जहाँ पोच है ठोंक दो पच्चड़
आख़िर क्या मतलब है इसका कि एक रात
जब मैं खोलूँ दरवाज़ा तो पाऊँ किसी घर में
बैठा है केतु, चंद्रमा किसी में किसी में राहु—
‘अजीब मुश्किल है आदमी की ज़िंदगी में एकदम
पेंच की तरह या कहिए जोंक की तरह बैठे हैं आप’
और तब मंगल ठठाकर हँसे और बोले—
‘हम हों कि न हों कोई है तो ज़रूर
पास या दूर कोई है पर ज़रूर!’
- रचनाकार : अरुण कमल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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