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गोल्डेन पैगोड़ा में

golden paigoda mein

लक्ष्मीकांत मुकुल

लक्ष्मीकांत मुकुल

गोल्डेन पैगोड़ा में

लक्ष्मीकांत मुकुल

और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल

    तियाँग नदी बेसिन के ऊँचे टीले पर

    शाँत ध्यानमग्न मुद्रा में बैठे है बुद्ध

    उनके स्वर्णिम पीलाभ काया से उठती है आभा 

    जिसमें धुल जाती हैं नम हवाएँ डुलाती हुई

    बौद्ध पताकाएँ, मंत्र पूरित झालरें

    जो आती हैं ब्रह्मपुत्र की धारों को छूती हुई

    गूँजते हैं तिब्बती गुत पंछी के कलरव 

    पेड़ों की झुरमुट से दिखती है दिहाँग घाटी की

    गिरि शृंखलाएँ, परशुराम कुंड के उतुंग पहाड़,

    तेंगापानी के धान के खेत

    लोहित नदी की कलकलाहट में धुनी उषा काल की धूसित किरणें

    पार्श्व से खिलंदड-सी झाँकती हैं पटाकाई पर्वत मेख्लाएँ

    जिनके बीच थिरकते हैं हुलुंग वृक्ष के डाल, 

    ऑकिड के फूल, तोको के पत्र

    खामती-सिंगफो के अबाल वृद्ध चीवरधारी

    मंत्रोचारों से करते हैं कामनाएँ

    कि बचा रहे

    जल-जंगल-ज़मीन का मोल

    जैसे बचाते आए हैं उनके पुरखे अहोम राज की यादें,

    अंग्रेज़ों-चीनियों-बर्मियों के छल से

    बचा रहे उगते सूरज के देस में 'दोनोपोलो' की समझ

    गोम्पा और पैगोडा में तथागत धम्म के थेरवादी संदेश

    संदेशों में छिपे अर्थ, बोध, जीवन लय 

    खेर की जड़ों की तरह धंसती रहें गहरे अतल में

    और सतह पर फफसकर लहलहाती रहें उसकी शाखें 

    जैसे घाटी से उपर चढ़ आई थकी पहाड़ी बालाओं के 

    चेहरे पर छिपी होती है स्निग्ध मुस्कान।

    स्रोत :
    • रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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