साँवले चेहरे की हँसी

sanvle chehre ki hansi

मनोज मल्हार

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साँवले चेहरे की हँसी

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    दीवारों पर पक्के ईंटों के रंग का फैलाव।

    असमतल सीढ़ियों के नीचे ठहरी नालियाँ।

    मटमैले आसमान का थोड़ा-सा हिस्सा...

    आते-जाते इंसानों के बीच

    पीठ पर बस्ता लादे

    एक स्कूली लड़की का प्रवेश।

    नीली स्कर्ट घिसी पिटी हरी क़मीज...

    दो चुटिया कंधों पर ठहरी...

    अनायास उसकी नज़र मुझसे मिलती है...

    आदतन मैं मुस्कुरा देता हूँ...

    और जवाब में वो मुस्कुराती चलती

    गली की टक्कर से ओझल...

    साँवले चेहरे की हँसी ठहर जाती हैं वहीं...

    ...यहाँ पत्थर बाज़ी हुई थी

    गोलियाँ हवा में थी अब भी।

    दरवाज़े तोड़े गए थे। घर जले थे

    हवा में काले धुएँ के कण बरक़रार।

    रह-रह धमाके झेल रहे

    दीवारों के पीछे लोग

    वक़्त बीतने का इंतज़ार कर रहे थे...

    दंगाईयों के दफ़्तर ने सुनिश्चित कर रखा था—

    अमन चैन नहीं ही रहने चाहिए...

    नाले की ऊपर सीढ़ी पर आरामतलब औरतों की गप्पें।

    लडकें कैसे शाँति से रेहड़ी पर पानी के डब्बों संग दूकान ले जा रहे हैं!!

    फैशन की दुकानों की रंगीनियत में खिले चेहरे उनके स्वाभाविक शत्रु।

    ...आज लड़की की हँसी सब पर भारी थी।

    हवा में टँगी साँवले चेहरे की हँसी

    जैसे उड़ते पतंग की डोर थाम

    चमकता सितारा टँग गया हो

    चमकता और चमकाता...

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनोज मल्हार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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