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घुटना

ghutna

प्रेमशंकर शुक्ल

और अधिकप्रेमशंकर शुक्ल

    घुटना हमारे चलने का

    पहला रियाज़ है

    आँगन में पगडंडी बनाने की शुरुआत

    घुटने से ही होती है

    चलने को बहुत नेह देती है पृथ्वी

    इसीलिए पृथ्वी की देह में है

    हर घुटने की गुदगुदी

    घुटने में इतना दिमाग़ है

    कि झेल जाता है सारी देह का वज़न

    दुनिया में कहीं भी हो मनुष्य

    चलने की पहली भाषा घुटने से ही फूटती है

    और फिर घुटना ही सँभालता है चलने की लय-ताल

    दिन के पैरों में भी लिखी मिलती है

    घुटनों की धीर-धुन

    हमारे महाकवियों-लोकगायकों को भी

    घुटने ने किया है बहुत मोहाविष्ट

    राम और कृष्ण के घुटुरन चलने के पदों से

    भरे हैं हमारे लोककंठ

    घुटना चलने की तरफ़दारी है

    एक अर्थ में जूझने की भी

    इसीलिए जब कोई घुटना टेक देता है

    तो उसकी पूरी जीवन-यात्रा पर

    लगता है गहरा दाग़-धब्बा

    चलने में सबसे अधिक वरिष्ठ और अनुभवी है घुटना

    इसीलिए करता रहता है वह हमारी यात्राओं की परवरिश

    जब भी पाँव पकड़ता है ग़लत राह

    घुटना होने लगता है हताश-उदास

    और बिगड़ जाता है चलने का संतुलन

    घुटना ज़रूरतों का भी प्रबल हिमायती है

    तभी तो वह हमेशा

    मुड़ता है पेट की ही तरफ़

    घुटनों ने ही रचे हैं हमारी यात्राओं के सारे स्वप्न

    और ख़ुद चल-चलकर हुए हैं स्याह

    बचपन की हमारी पृथ्वी भी

    अपनी परिक्रमा घुटने से ही पूरी करती है

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रेमशंकर शुक्ल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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