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घर

ghar

उपांशु

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    घर होना

    घर होने से बेहतर है

    तब ख़ुदा और मेरे बीच सिर्फ़

    एक नीली चादर रह जाती है कहने भर के लिए

    जिसे जब चाहा नोचकर फेंक दिया

    रोज़ निकलने से पहले लौटने का सोचना

    रास्ते का मानचित्र नसों की शक्ल में चमड़े पर कुरेदना

    बह रहे लहू से रेखाएँ खींच

    घर को हर तरह से कीलित करना

    यह कैसी मृगतृष्णा में जीता है आदमी

    रोटी, कपड़ा और मकान जैसे

    कितने टोटकों में फँसा होता है केवल रहने भर के लिए

    मैं खोजता हूँ अपने लिए

    आज भी एक कोना घर लौटने से पहले

    एक सिगरेट और संसार भर की शांति

    पहले ही कश से हर तरह का अन्न जिस्म छोड़ धुआँ हो जाता है

    मैं भूल जाता हूँ

    सर्वाइकल का दर्द जो ऑटो के हर हिचकोले पर उखड़कर पूछता है

    घर तक पहुँचने का वक़्त

    मैं भूल जाता हूँ

    अपनी जलती हुई नसों को

    जिनको आज नए रास्तों के लिए कुरेदा था

    ये लगा कर चौथी बार मैंने नसों के पैटर्न के साथ खिलवाड़ किया है

    ये लगा कर चौथी बार मैंने आज सिगरेट कुचला है

    घर आदमी का शहर होता है

    और कमरा उसका क़स्बा

    उसकी सबसे बड़ी स्मृति चूने की उखड़ती पपड़ियों-सी झड़ जाती है दीवारों के रंग बदलते ही

    रातों को खिड़कियों की जगह बदल जाने पर चाँद भी हाल पूछना भूल जाता है

    उसे नीले आसमानों की तलब होने लगती है

    सौ गज़ आसमान ऐसा जो उसके घर के ऊपर सूखता था

    स्रोत :
    • रचनाकार : उपांशु
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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