घर में आँगन था,
आँगन में आसमान था,
सूरज, चाँद और सितारे थे,
धरती के साथ हवा,
बादल और बारिश थी,
तुलसी का बिरवा था,
चहचहाती,दाना चुगती गौरैया थी
लाल चोंच वाले सुग्गे थे
मैना थी, कबूतर थे,
काँव-काँव करते कौवे थे
और शाम में झींगुरों का समूह गान था।
एक कोने पर गुल हज़ारा के पौधे थे
जिनमें बड़े ही सौम्य-शालीन पुष्प लगे रहते थे
जो पूरी रात जगकर
सुबह होने तक धरती पर
अपने फूलों से रंगोली बना देते थे।
आँगन सुबह-शाम बुहारा जाता था,
गर्मियों में पानी के छींटे दिए जाते थे।
कभी-कभी मेरी आजी
आँगन को गोबर से लीप देती थीं
उस दिन देवता उतर आते थे
आसमान से आँगन में,
वह मंदिर हो जाता
और हम जूते बाहर उतार देते।
बरसात की पहली बारिश के साथ
आँगन से बड़ी ज़ोर से उठती
माटी की सोंधी ख़ुशबू
जिसे हम ज़ोर से साँस खींचकर
भरते अपनी साँसो में माटी की महक
जो धीरे-धीरे रगों तक में फैल जाती।
तेज बारिश में आँगन जब झील बन जाता
हम उतार देते उसमें
अपनी काग़ज़ की कश्तियाँ और शिकारे
और उसमें चींटे-चींटियों को कराते
दुनियाँ के इस छोर से
उस छोर तक की सैर।
आसमान से उतरते पक्षियों का
प्रथम स्वागत करती थी आँगन की मुँड़ेर।
इसी मुँड़ेर पर बैठकर
कौवे किसी पाहुन के आने की
पूर्व सूचना दे जाते थे,
शायद यहीं से ताक-झाँक करते हुए
कोई कागा हमारे लोक गीतों की
एक नायिका की नथ लेकर,
उसके सोए प्रेमी को धता बताते हुए
चुपके से चंपत हो गया था
तभी तो आज तक सुनाई पड़ता है
उसका यह ताना कि—
नकबेसर कागा ले भागा
मोरा (मेरा) सैंया अभागा ना जागा।
इसी आँगन की मुँडेर पर ही
खिड़रिच (खंजन) लेकर आते
वर्षा से धुले हुए शारदीय दिन और रातें
तो माँ उन्हें देखते ही प्रणाम करती
और दौड़ी चली आती
हमें भी दिखाने के लिए
तो हमारे भी हाथ जुड़ जाते
एक पखेरू-दर्शन परंपरा के सम्मान में।
जब कभी आँगन में सुखवन पड़ता
मुझे पक्षियों से निगरानी करने के लिए
बैठा दिया जाता,
मेरी सारी कोशिशों के बावजूद
वे अपना हिस्सा ले ही जाते थे।
मेरा मन-पखेरु किताबों में
अक्षरों के दाने चुग रहा होता
और वे अनाजों के दाने।
सुबह और शाम गॉंव के सभी आँगनों से
उठता था धुँआ
जो सह नौ भुनक्तु के उद्घोष के साथ
मिलकर आसमान में छा जाता था
और इस बात की तसदीक करता था
कि घरों में चूल्हे जले हैं।
आँगन में ही शाम में
महिलाओं की चौपाल लगती,
आँगन में ही शादी का मड़वा बनता,
हल्दी और मटकोर की रस्में होतीं,
आँगन में ही रात में
विवाह की सप्तपदी होती
और अगले दिन दोपहर में
खिचड़ी खाने की रस्म होती
और दूल्हे को फूल के बर्तन में
खाना परोसा जाता था,
पहले वह कोहनाता था
फिर मान-मनौवल होने पर
और उसकी माँगे पूरी होने पर
खिचड़ी खाता था।
और फिर महिलाओं की
गुड़ लगी गालियों से होता
त्रेता युग से चली आ रही
एक परंपरा का निर्वाह—
जेंवत देहि मधुर धुनि गारी,
ले-ले नाम पुरुष अरु नारी॥
दिन में अगर सूरज आ बैठता था आँगन में
तो रात में चाँद सितारे भी उतर आते थे आँगन में,
किसी अँधेरी रात में तो
पूरा आँगन ही तारामंडल बन जाता
कहीं कचपचिया तारे चिढ़ा रहे होते
तो सप्तर्षि अपनी वरदा-मुद्रा के साथ खड़े मिलते।
अरुंधती, अगस्त्य, रोहिणी और जाने कितने तारे
अपने द्युति लोक से आँगन में निहारते रहते।
आँगन हमारे मन का प्रतिबिंब था,
वहाँ पीढ़ियों और परिवार की परंपरा
सजदे में झुकी हुई मिलती थी,
वहाँ कोई अँगुली तर्जनी थी
कोई मध्यमा थी
कोई अनामिका और कनिष्ठिका
लेकिन उन सबके मिलने से
बना हुआ एक विशालकाय हाथ था
जो सबके सिर पर धरा हुआ था।
वह रक्षति रक्षितः का एक
पारिवारिक भाष्य था।
आँगन जहाँ शील और शर्म जैसे
संस्कारों के गुरुकुल थे
तो अंतर्मुखता की उलझी गाँठों को
खोलने की मुँहफट चाभियाँ।
वहाँ दिन भर के थके-हारे मन
शाम को टिका लेते थे सिर
किसी दुनिया ढोकर बूढ़े हुए कंधे पर,
कभी-कभी सुबक भी लेते थे
और हलके हो जाते थे।
अक्सर घुटनों पर चलकर आती
कोई दंतुरित मुस्कान
पल भर मे हर लेती थी
सारा तनाव और थकान।
जब तक घर में आँगन था
मन में भी आँगन था,
तब मन में भी अवकाश था,
विश्वास था, आश्वास था,
साहचर्य था, सच्चाई थी
और आँगन की वह भूमि
सभी रिश्तों की साझी कमाई थी।
- रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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