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घर

ghar

सड़क पार की पुलिया पर

बैठकर,

सुस्ता सकते थे हम,

कुछ देर

देख सकते थे

ढलान से सरपट उतरते पेड़ों को,

हर आवाजाही को,

चुपचाप,

अपने में दर्ज करती झील को,

नीचे उतरकर

पेड़-पौधों पर पसरते

हवा में धुलते आसमान को,

पुलिया के पास

ठिठकते हुए

बढ़ लेते हैं हम घर की ओर

ढोते हुए अपने को,

सामान के साथ साथ!

अब उतारेंगे,

अपनी थकान को,

इकठ्ठा ही

घर में!

‘कितना सहनशील है घर’!

कहते हुए हम

लाद देते हैं अपना सारा बोझ

भीतर का भी

बाहर के साथ-साथ

लेकिन,

ढहता नहीं वह कभी,

हमारी थकान से!

स्रोत :
  • पुस्तक : साक्षात्कार 40-41 (पृष्ठ 118)
  • संपादक : सोमदत्त
  • रचनाकार : ज्योत्स्ना मिलन

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