कहीं चले गए हैं पेड़ की डाल से पंछी
उदास हो-होकर
नहीं है बसेरा गिद्ध का ताड़ पर
बिज्जू आम की डाल से
टूट कर ग़ायब हो चुका है
मधुमक्खी का छत्ता
और धूल भरे आसमान में
दोनों पाँव थोड़ा उचक गया है—गाँव
ऐसे बे-मौसम कैसे गाई जाए ठुमरी-कजरी
जब गाँव के क़िस्से-कहानी का
परान ले जाए कोई जमदूत
कि लोकगीत गाने वाली औरतों के सुर, लय, तान
कंठ में छाले पड़ने से नहीं
अपने शरीर के क्षत-विक्षत होने के डर से
गुम हो चुके हैं
अब जब
मुखिया जी की मूँछ में लगे घी से
और बाबूसाहेब के स्कार्पियो के टायर से
नापी जा रही औक़ात, गाँव की
और सरपंच के घूसख़ोर, मुँहदेखुआ फ़ैसले पर
टिका है गाँव का न्याय
तो क्या पंडित जी के ठोप-त्रिपुंड से
चीन्हा जाए गाँव का संस्कार
ऐसे समय में
जब हममें कोई संवाद लेने-देने का ढब नहीं बचा
मोबाइल पर अनवरत झूठ बोलकर
ले लेते हैं जायज़ा गाँव का
वही गाँव
जहाँ छल-छद्म-पाखंड और भेदभाव के बीच भी
पड़ोसी सिर्फ़ लड़ते ही नहीं थे
पड़ोसी के घर और अपने घर में अंतर
सिर्फ़ चेहरे से हुआ करता था
पड़ोसी के घर के बनने वाले
पकवान की गंध से ही
बरमब्रूहि-कह उठता था पेट
अपनी थाली में जिस समय
सब्ज़ी के बदले रोटी पर
सिर्फ़ एक टुकड़ा अचार था
पड़ोसी दादी दे जाती थी
गरमागरम माँछ-भात
अब तो पड़ोस में सड़ रही
लाश की गंध तक हमें नहीं आती
पड़ोसी की उदासी तो
हमारे लिए आनंद है
सिर्फ़ पड़ोस ही नहीं
समूचा गाँव उदास है
गाँव की उदासी का गीत
कोई कलाकार नहीं
पाकड़, नीम, बरगद और पीपल गाते हैं
या गाते हैं वो सूखे तालाब
जिनके आस-पास नहीं मँडराते हैं गिद्ध
या वो कुआँ जिसमें अब कछुआ नहीं तैरता
महीनों से सड़ रहा
आवारा कुत्ता गंधा रहा है
दुल्हिन नहीं गाती मंगलचार
अपने ख़ून और किडनी बेचकर
सियाराम भरतार परदेस से
पैसे भेजते हैं गाँव
जो गाँव बच्चे-बूढ़े और विधवाओं की
रखवारी में है, जहाँ
हर मजूरिन उदास है खेत में कि
धान की सीस में
बहुत कम है धान
खलिहान का जो हो
भूसखाड़ में सिर्फ़ भूसा बचेगा
उदास समय में
सिर्फ़ गाँव में उदासी है, कि
पेड़ उदास है
या मधुमक्खी का छत्ता उदास है
लोककथाओं में उदासी है
या रो-रोकर मिट गया है लोकगीत
खलिहान में उदासी है
कि समूचा खेत उदास है
बिन पानी नहर उदास है
हार्वेस्टर-ट्रैक्टर उदास है
कि थ्रेसर की धुकधुकी उदासी का गीत गा रही है
और आटाचक्की ऐसे ही बकबका रही है
उदासी माँ की बूढ़ी आँखों में
छाई हुई दुख भरी नमी है
या आँसू की बूँद
या कच्चे जलावन से चूल्हे जलाने के बाद
आँख में लगे धुएँ का असर
इन सबका
हिसाब-किताब
मैं एक कविता लिखकर
कैसे लगा सकता हूँ...?
- रचनाकार : अरुणाभ सौरभ
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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