कल मैंने तुमको फिर देखा
हे खर्वकाय, हे कृश शरीर,
हे महापुरुष, हे महावीर!
हाँ, लगभग ग्यारह साल बाद
कल मैंने तुमको फिर देखा
हे देव तुम्हारे दर्शन को
कल जुटे आदमी दस हज़ार!
उस संघशक्ति को श्रद्धा से
दोनों हाथों को जोड़ किया
तुमने ही पहले नमस्कार,
फिर नन्हीं-सी तर्जनी दिखा,
उद्वेल जलधि-सी जनता को
क्षण-भर में तुमने किया शांत!
घर हो, बाहर हो, कारा हो
लाचारी हो, बीमारी हो
सत्याग्रह की तैयारी हो
बंबई हो कि या लंदन हो
हो क्षुद्र गाँव या महानगर
कुछ भी हो, कैसी भी स्थिति हो,
तुम सुबह-शाम
उस परमपिता परमेश्वर की प्रार्थना नित्य—
करते आए हो जीवन भर,
दो-चार और दस-बीस जने
शामिल हो जाते हैं उसमें।
पर कभी-कभी दस-दस पंद्रह-पंद्रह हज़ार
यह सहस-शीश यह सहस-बाहु
जनता भी शामिल होती है।
कल मुझे लगा ऐसा कि, नहीं—
उस परमपिता परमेश्वर की प्रार्थना हेतु;
पर, दरस तुम्हारा पाने को
एकत्रित होती है जनता
उद्वेलित सागर-सी अधरी,
हे खर्वकाय, हे कृश शरीर!
जय रघुपति राघव राम राम!
बिस्मिल्ला हिर्रहमाने रहीम!
प्रार्थना सुनी, देखी नमाज़
फिर भी जनता ज्यों की त्यों थी
उद्वेलित सागर-सी अधीर!
तुम लगे बोलने तब जाकर वह हुई शांत!
देखा तुमको भर-आँख और भर-कान सुना,
कुछ तृप्ति हुई, कुछ शांति मिली;
बोले तुम केवल पाँच मिनट!
चुप रहे आदमी दस हज़ार, बस पाँच मिनट!
तुम चले गए, जनता उठकर बन गई भीड़
उच्छृंखल सागर-सी अधीर
फिर धन भर में सब बिखर गए
कुछ इधर गए, कुछ उधर गए
देखा बिड़ला की कोठी का वह महाद्वार
तैनात वहाँ थी स्वयंसेवकों की क़तार
हे धनकुबेर के अतिथि...नहीं, हे जननायक!
कल तेरे दर्शन के निमित्त
थे जुटे आदमी दस हज़ार
इस दुखी देश के हे फ़क़ीर,
हे खर्वकाय, हे कृश शरीर!
जिस सागर का मैं एक बिंदु
तुम उसकी तरंगों का करने आए हो प्रतिनिधित्व
यद्यपि ख़ुद भी तुम बिंदुमात्र
यद्यपि ख़ुद भी तुम व्यक्तिमात्र
फिर भी लाखों जन से पाकर प्रेरणा बने हो महाप्राण
हे खर्वकाय, हे कृश शरीर!
संध्या को साढ़े सात बजे
कल तेरे दर्शन के निमित्त जुटे थे दस हज़ार
मैं उनमें था : तुमको देखा
फिर लगभग ग्यारह साल बाद।
- पुस्तक : नागार्जुन रचना संचयन (पृष्ठ 93)
- संपादक : राजेश जोशी
- रचनाकार : नागार्जुन
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2017
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