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गंध-यात्रा

gandh yatra

निधीश त्यागी

निधीश त्यागी

गंध-यात्रा

निधीश त्यागी

और अधिकनिधीश त्यागी

     

    नींद के उस तरफ़ मानसून की आहट में, 
    आने में, न आने में, न जाने में, लहट कर आने में, 
    जल्दी चले जाने में, 
    खिलने की, खुलने की, 
    खिड़कियों के भड़भड़ाकर
    खुल जाने की, बिजली चले जाने की, 
    उमस की,  सुबह की, दुपहर की, रात की

    लगातार हुए जा रही बारिश
    में ठीक से न सूख पाई क़मीज़ की 

    टोकरी में भरे हुए जामुन बेचती बूढ़ी औरत
    लाल मुरूम वाले टीले पर
    सरपट आ पड़ती बारिश की मोटी बूँदें 

    ताप की, पृथ्वी की, अग्नि की, वायु की, जल की, वनस्पितयों की, 
    हर तत्त्व की, देश, काल, व्यक्ति, विषय, वस्तु, धातु, संधि
    संज्ञा, सर्वनाम की, छौंक की, सिलबट्टे में पिस रहे मसालों की
    दालचीनी, पुदीने, धनिए, सौंफ़, बड़ी इलायची, लौंग की
    स्मृति अपनी अपनी पोटलियों में बटोरे चलती है
    रसोईघर, सभ्यता, सहूर और दास्तानें।

    आठवें दशक में रीवा से
    इलाहाबाद की सिविल लाइंस
    के पैलेस थियेटर में ‘गंस ऑफ़ नैवेरॉन’ देखने के बाद
    यूनीवर्सल बुक डिपो के रास्ते
    एक खिड़की से झाँकना
    अल चिको रेस्त्राँ में 
    एक किशोर कौतुक का।

    मंटो की कहानी 'बू' के बारे में 
    अहमदाबाद में देर रात तपती सड़क पर हल्की बारिश
    में उस दोस्त से बात करना
    जो अब नहीं है।
    अस्पतालों के फ़र्शों से उठती फ़िनाइल
    और बिस्तरों से मृत्यु की 

    अपने नवजात को अपने हाथों 
    में उठाकर प्यार करने की

    सातवें दशक में नारायणपुर बस्तर 
    के ईसाई मिशनरी स्कूल 
    जाते वक़्त तालाब की बग़ल 
    में भभकते केवड़े और 
    जंगलों में गिरते इरुक पुंगूर 
    एक के बाद एक
    शराब बनने से पहले
    गोंड देवताओं को 
    प्रस्तुत होते हुए

    अख़बार के दफ़्तर से लौट
    नागपुर के सीताबर्डी से धरमपेठ में 
    एक मारवाड़ी बासा के रास्ते 
    पैदल चलते टोकरी में रखे
    भभकते मोंगरे के गजरे।

    रायपुर के विवेकानंद आश्रम की लाइब्रेरी
    की पुरानी किताबों के उम्रदराज़ पन्नों के बीच
    पेंसिल से लगा निशान

    रेलवे पुल पर चढ़ते ही
    सहारनपुर की काग़ज़ फ़ैक्ट्री
    से आती इंडस्ट्रियल बदबू
    और ताई के घर जाने से
    पहले रिक्शा रुकवा कर समोसे 
    बँधवाती माँ
    नांगल से गाँव जाते वक़्त
    खेतों के बीच भट्टियों में पकता गुड़ 
    और फैलता धुआँ 

    एक सस्ते शराबघर में अंकुरित चने, सिगरेट 
    और घूँट भरने के बीच मुंबई में
    मुझे गाली देता एक दोस्त
    वहाँ के पसीनों की गंध
    और चेहरे का कसैलापन 
    तैरता हुआ धुआँ 
    बजबजाहट को पीछे छोड़ती
    तेज़ मसालों और सस्ते तेल वाली नागपाड़ा की बिरयानी

    रायपुर में एक पान वाले
    का रचा हुआ रस, रंग
    का पूरा झनझनाता फिलहॉरमनिक
    हर ज़हन में एक नया ड्रामा खोलता, 
    खेलता, परदे गिराता, दृश्य बदलता
    हर बार पुरातन और हर बार ताज़ा
    पूरे शहर को पान के हिसाब से डिकोड किए
    चमन, किमाम, ज़र्दा और तंबाकू के हिसाब से

    अदरक की चाय में डुबाकर 
    हापुड़ में गेहूँ देकर बनवाए गए
    कनस्तर भर आटे के बिस्कुटों
    की ताज़गी में
    बेकरी वाले का ख़ुशनुमा चेहरा

    रेलगाड़ियों में पड़ोस की सवारियों 
    के पराठों के बीच
    दबे हुए अचारों का तिलस्म

    लंदन के एक तंदूर में से तफ़्तूश रोटियाँ 
    निकालता एक सुंदर ईरानी देवतानुमा चेहरा
    हम्मस के साथ खाने के लिए
    राजकोट से कच्छ जाते अरब सागर के साथ-साथ
    खारी हवा में बेबी पाउडर बयार
    बनारस में विश्वनाथ मंदिर के पास मटके में भर कर
    पत्तल से बाँध कर मिलती पागल सरदार की रबड़ी

    पिता के जाने के सालों बाद
    किसी भीड़ से आ जाती उसी ऑफ़्टर शेव 
    की झलक 

    बारिश में उगी हरी घास में रेंगते 
    चमकते साँप की बग़ल में 
    नौरोजाबाद क़स्बे में 
    जली हुई सिगड़ी के कोयले का 
    बहती सीली हवा में धुँध का
    बहुत साल बाद शिमला में 
    आइले की व्हिस्की पीते हुए याद आना

    कॉफ़ी से पहले सड़क पर
    कड़क कड़ुवाहट का वायदा

    अगरबत्तियों की ईश्वरीयता, दियासलाइयों का फ़ॉस्फ़ोरस, 
    सिगरेट, सिगरेट, बीड़ी, सिगार, सिगरेट, निकोटीन चुइंग ग़म,

    दिल्ली की एक लिफ़्ट में एक तेज़ इत्र से 
    बचने के लिए आठ मंज़िल साँस 
    रोकने का तप

    आम और ख़रबूज़ा। 

    लकड़ी की कुर्सी पर तारपीन तेल की तेज़ भभक।

    लोक, लीला, रस, देस, काल
    साँस की तरह ही तयशुदा, दर्ज, स्थापित
    उपस्थितियों के भीतर
    और ऐंद्रिक 

    गंध के शरीर, गंध की आत्मा, गंध का मन, गंध की कलाई, गंध की पकड़, गंध का सरगम, गति, थिर, 

    एक हल्के इत्र के परे जाकर
    ख़ुद तक जा पहुँचने का अनुक्रम

    एक पल का धीरे से 
    खुलना, खोलना
    और बिना किसी इत्र के 
    ख़ुशबुएँ हो जाना

    अपने आदिम और अभी में
    सह के वास में

    ग़ायब हो जाने से पहले 
    विशेषणों की मुट्ठियों में फँसती 
    और फिसलती जाती 
    हवाओं में घुल जाने के लिए 

    आना
    निकल जाना।

    शनिवार, 1 मई 2021 (जिस दिन तीन दिन के लिए गंध आनी बंद हो गई)

    स्रोत :
    • रचनाकार : निधीश त्यागी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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