इस गमले में
अब मुझे पौधा नहीं लगाना यह सोचकर
मैंने उसे जहाँ कड़ी धूप लगे
वहाँ
अपने आँगन में रखा है।
जिससे उसकी मिट्टी
सारशून्य हो जाए और
तप कर इतनी सख़्त हो जाए
कि कोई कितना भी पानी ढालें
उसमें एक भी अंकुर न फूटे।
बरसों पहले माँ ने
उसमें तुलसी की मंजरी डाली थी—
तो बारिश के बाद
उसमें छोटे पौधे निकल आए थे।
मैं और मेरी बहन, माँ ने जैसा कहा वैसे
उसकी प्रदक्षिणा करते, लोटा भर पानी डालते—
कभी अबीर-गुलाल भी छिड़कते।
तुलसी के पौधे बड़े होकर कितने होते?
शायद पौधे का आयुष्य ख़त्म हुआ था
या फिर घर के सभी सदस्य
बारी-बारी से पानी डालते होंगे तभी
सड़न लगने से
या फिर और भी कारणों से—
वे पौधे धीरे-धीरे सूखने लगे थे।
पहले पत्ते पीले पड़ गए
फिर मंजरियाँ मुरझाने लगीं।
फिर हरी डंडियाँ सूखी डंठल हो गईं।
माँ ने तो मंजरियाँ खुली ज़मीन पर बिखेरी
पर वहाँ भी अंकुरित नहीं हुईं।
फिर एक दिन माँ ने सारे पौधे निकालकर
गमले की मिट्टी को ऊपर-नीचे किया
तो लंबे अर्से से दबे हुए
छोटे-छोटे कीड़े और दीमक
ऊपर आने लगे।
तुलसी को भी ये नहीं छोड़ते! — कहकर माँ ने
दूसरे पौधे लगाने का बहुत प्रयास किया।
लेकिन उन कीड़े और दीमक से भरी मिट्टी में
पौधे अधिक समय टिक नहीं पाते थे।
माँ वह गमला मुझे दे गई है।
मुझमें माँ जैसा
बार-बार पौधा बादलते रहने का
धीरज नहीं है।
इसीलिए उस गमले में
अब मुझे पौधा नहीं लगाना
ऐसा सोचकर—
मैंने उसे कड़ी धूप लगे
उस तरह, मेरे आँगन में रखा है।
- पुस्तक : आधुनिक गुजराती कविताएँ (पृष्ठ 114)
- संपादक : वर्षा दास
- रचनाकार : इंदु जोशी
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2020
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