प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी के लिए
एक
बहुत पास थे, बहुत दूर जाते हैं
मातम रोज़ मनाते हैं
मातम!
हम-हम, हम-हम, हम-हम
एक बहुत सुंदर उजली लड़की थी
एक बहुत मैली-कुचली लड़की थी
उसकी आँखों में पत्थर था
उसका भी छोटा-सा घर था
आँखों के पत्थर का क़िस्सा रोज़ सुनाते हैं
उसके छोटे घर का गाना गुनगुन गाते हैं
मातम रोज़ मनाते हैं
मातम!
हम-हम, हम-हम, हम-हम
हमने कब यह कहा कि हम जाएँगे
दस तक तो जाना है दफ़्तर
और शाम को फिर वापस घर
हमसे होगा नहीं बहुत भारी है
अपनी बिल्कुल अद्भुत लाचारी है
हमने कब यह कहा कि हम जाएँगे
और गए भी, तो कुछ कर पाएँगे?
कर्म नहीं है अपने वश में, सिर्फ़ शब्द हैं
धर्म नहीं है अपने वश में, सिर्फ़ शब्द हैं
सिर्फ़ शब्द ही तो दे पाएँगे;
लो फिर वही पठाते हैं
मातम ख़ूब मनाते हैं
मातम!
हम-हम, हम-हम, हम-हम
इतना ही सुंदर है, सुंदर रहने दो सबको
हम सबको याद कर रहे हैं
इतना ही तो घर है, अपना कहने दो इसको
हम घर को याद कर रहे हैं;
उसमें हम भी रहते हैं, उसमें माँ भी रहती है
थोड़ा हम भी कहते हैं, थोड़ा वह भी कहती है
दो
उसके साथ हमारे इस होने का
उसके साथ रोज़ हँसने-रोने का
हमको भी हक़ है, हम भी जीते हैं
कभी उगलते और कभी पीते हैं
अपने दुख का मुख ही अपना घर है
अपना एक दुलारा सपना घर है
जिसमें हम भी रहते हैं, जिसमें माँ भी रहती है
थोड़ा हम भी कहते हैं, थोड़ा वह भी कहती है
उसके पास फूल-परियों का क़िस्सा
उसमें भी थोड़ा-सा अपना हिस्सा
उसके पास नमक लकड़ी का क़िस्सा
उसमें भी थोड़ा-सा अपना हिस्सा
उसके हिस्से को, अपने हिस्से को
उसके क़िस्से को, अपने क़िस्से को
बाँधकर गाँठ लगाते हैं
रिश्ता ख़ूब बनाते हैं
मातम ख़ूब मनाते हैं
मातम!
हम-हम, हम-हम, हम-हम
रिश्तों से सपना सुंदर होता है
रिश्तों से घर अपना घर होता है
अपने घर से तीन मील की दूरी
अपना दफ़्तर है अपनी मजबूरी
मजबूरी की कुर्सी पर बैठे हम
मशहूरी की कुर्सी पर बैठे हम
सोचा करते हैं अक्सर बाहर की
कोई बहुत निकट का, उसके घर की
वह भी शायद अपने घर में होगा
वह भी शायद उस बिस्तर में होगा
उसका बिस्तर बिस्तर जैसा होगा
ठीक हमारे ही घर जैसा होगा
अपने घर की बात सोचते हम थक जाते हैं
मातम ख़ूब मनाते हैं
मातम!
हम-हम, हम-हम, हम-हम
कोई एक निकट का हमसे दूर जा रहा गुमसुम
सोच रहे हैं हम तुम
दोनों के दोनों चुपचाप पड़े हैं
तीन
दोनों अभी-अभी थोड़ा उखड़े हैं
तुम भी कहती हो मैं उसको रोकूँ
मैं भी कहता हूँ तुम उसको रोको
तब तुम कहती हो मुझको मत टोको
फिर मैं कहता हूँ मुझको मत टोको
हम नहीं टोकते कभी एक दूजे को
हम नहीं रोकते कभी किसी तीजे को
कोई एक निकट का, हमसे दूर जा रहा गुमसुम
सोच रहे हैं हम तुम, उसकी बात सुनाई पड़ती
उसके हाथ दिखाई पड़ते, उसकी आँख दिखाई पड़ती
अपनी आँखों में उसकी सुंदर परछाई गड़ती
मगर बिस्तर पर लेटे हम
बड़े राजा के बेटे हम
उसको टाटा करते हैं
उससे बेहद डरते हैं
अब अपने घर में केवल हम
अब इस बिस्तर पर केवल हम
अच्छा हुआ कि आज घटा छाई
मातम अपना पेशा है भाई!
अपना पेट चलाते हैं
उनका बैंड बजाते हैं
मातम ख़ूब मनाते हैं
मातम !
हम-हम, हम-हम, हम-हम
मातम रोज़ मनाते हैं।
- रचनाकार : प्रभात त्रिपाठी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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