पंकज सिंह मेरा दोस्त था, दोस्त नहीं था
pankaj sinh mera dost tha, dost nahin tha
अजय सिंह
Ajay Singh
पंकज सिंह मेरा दोस्त था, दोस्त नहीं था
pankaj sinh mera dost tha, dost nahin tha
Ajay Singh
अजय सिंह
और अधिकअजय सिंह
वसंत के बादल की गरज
और शरद के बादल के संगीत के बीच
पुल बनाने का सपना लिए
तुम मिले
तुम्हारी चौड़ी हथेलियाँ चौड़ी मुस्कान चौड़ी आँखें
बेतकल्लुफ़ दोस्ती के पैग़ाम से भरी थीं
जिन्हें तुम्हारे ठहाके और ज़ोरदार बना देते
वो वक़्त ऐसा था
जब दोस्तियाँ निश्छल और निर्दोष हुआ करती थीं
वे पैदल चलती चली आती थीं
प्यार गहरी अंतवार्सना,
गहरी अंतर्करुणा से भरा होता था
हम सब सामूहिक घर हुआ करते थे
जहाँ कोई भी दोस्त
मामूली-सा परिचित व्यक्ति
रात-बिरात अपने झोला-झक्कड़ के साथ
दाख़िल हो सकता था
किसी कोने-क़तरे में
आराम से पसर सकता था
ऐसे ही किसी वक़्त
कंधे से झोला लटकाए
तुम दाख़िल हुए इलाहाबाद में
तब दिलों में जगह ज़्यादा हुआ करती थी
ईंट पत्थर सीमेंट एसबेस्टस से बने घर
आम तौर पर छोटे और तंग हुआ करते थे
उन्हें घर क्या
दड़बा कहना ज़्यादा सही होगा
लेकिन दिलों में जगह ज़्यादा हुआ करती थी
तब किसी के अचानक घर आ टपकने पर
कोई नहीं कहता था कि
यह कमबख़्त कहाँ से आ मरा
उन्हीं दिनों तुम मिले
चूँकि फ़िज़ा ऐसी थी जो सबको साथ लेकर
चलने के लिए उत्साहित कर रही थी
हम साथ हो लिए
तुम मैं हमारे जैसे अन्य लोग
जिनकी मसें अभी भीग रही थीं
कुछ समझते-बूझते कुछ समझने की कोशिश करते
देस-दुनिया में जवानी की हवा छाई हुई थी
तुम अपना गीत
‘फिर सताने आ गए हैं शरद के बादल’
लय में सुनाते
और नीलाभ उसकी पैरोडी करता
(नीलाभ भी अलग क़िस्म का ही जीव था)
तुम कभी हँसते कभी नाराज़ होते
तब कभी तुम
5, ख़ुसरोबाग़ रोड, लूकरगंज, इलाहाबाद जाते
(आह, यह घर जवाँदिल उमंगों का अड्डा ग़र्क़ हुआ
जैसे बहुत-सारे घर
बहुत-सारे अड्डे ग़र्क़ हुए)
नीलाभ तुम्हें दूर से देखकर चिल्लाता :
‘आ गया शरद का बादल हमको फिर सताने’
तुम ग़ुस्से में वापस लौटने के लिए मुड़ते
नीलाभ पीछे-पीछे दौड़ता आता
तुम्हें अंकवार में कस कर भींच लेता और कहता :
‘नाराज़ नहीं होते बेटा पंकज मुज़फ़्फ़रपुरी
घर चलो बढ़िया चाय पिलाता हूँ
फिर तुम्हारी कविता सुनूँगा...’
कभी साथ मैं होता
कभी सुरेंद्रपाल
फिर हम सब पैदल मार्च करते
इंडियन कॉफ़ी हाउस सिविल लाइंस की ओर
वह हमारा सबसे सुहाना अड्डा होता था
कई कवि एक साथ पैदा हो रहे थे
तुम नीलाभ निर्मला वर्मा वीरेन डंगवाल नीलम सिंह
गिरधर राठी अगर गोस्वामी नगेंद्र चौरासिया रमेंद्र त्रिपाठी
जयकिशन ढाँडियाल सईद मैं...
कविताएँ प्यार बग़ावत अतृप्त ख़्वाहिश रोमानी भावुकता के
रंग-ओ-बू में लिपटी होती थीं
‘सूनी घाटी का गीत’ वाला सीनियर पोएट प्रभात
पहले से हमारे बीच मौजूद था
चूँकि यह सीनियर था...
शमशेर उस पर एक कविता लिख चुके थे,
लिहाज़ा वह हम सबके कविता-चक्षु अक्सर खोला करता
वह एक शादीशुदा औरत से प्यार में व्याकुल था
यह बात हम सबको बहुत रहस्यमय लगती थी
शादीशुदा औरत को प्यार करना क्या बला है!
हम उस औरत की एक झलक पाने को
बेताब रहते थे
जिसने इस सीनियर कवि को दीवाना बना रखा था
बाद में हमारी पीढ़ी का एक कवि
उस औरत के प्यार में रच-बस गया था...
तब लड़कियाँ हमारे सपनों में आतीं
और सुखद गीलापन छोड़कर
फुर्र हो जातीं
कवियों के बीच तुमने अपनी पहचान-यात्रा शुरू की
तुम्हारी कविताओं ने उड़ान भरी
1967-68 के दौर की बग़ावत और प्यार की स्पिरिट के साथ
तुम उड़ चले
नक्सलबाड़ी पेरिस वियतनाम
नई दुनिया का ख़्वाब रच रहे थे
'आहटें आस-पास' थीं
जिन्हें तुम सुन रहे थे बुन रहे थे
स्वतंत्रचेता कवि के रूप में
तुम्हारी पहचान बननी शुरू हुई...
कई बरस बाद
कई बरस बाद
तुम फिर मिले
पुख़्ता कवि के रूप में
तुम्हारी पहचान
काफ़ी हद तक बन चली थी
तुम्हें जानने-पहचानने वालों की तादाद बढ़ गई थी
कई जगहों से तुम्हें बुलावा मिलने लगा था
तुम्हारे चाल-ढाल में
हलका-सा गर्व झलकने लगा था
बस हल्का-सा
तुम दोस्तों के ख़ैरख़्वाह पहले भी थे
अब भी थे लेकिन...
लेकिन...
आहटें जो आस-पास थीं किसी वक़्त
अब दूर जा चुकी थीं
वसंत के बादल की गरज नामालूम-सी थी
उससे अब तुम्हारा रिश्ता
प्रतीकात्मक ज़्यादा था
शरद के बादल का संगीत गुम होती उदास धुन थी अब
हालाँकि ठसक धमक कसक बची हुई थी
इसी चीज़ ने तुम्हें बचाया
अतीत और वर्तमान के बीच
तुम भग्नदूत की तरह खड़े थे
तुम मैं हमारे जैसे असंख्य लोग
जिन्हें गहरी उम्मीद थी
कि जन मिलीशिया मार्च करेगी
मुक्त होगी हमारी प्यारी मातृभूमि
हमने मुक्ति का वर्ष भी तय कर रखा था
वस्तुगत यथार्थ से कटी
आत्मगत धारण से उफनती
इस उम्मीद को ध्वस्त होना ही था...
फिर रास्ते अलग होते चले गए
तुमने अपनी ज़िंदगी की नोटबुक के पहले पन्ने से
मेरा नाम काट दिया था
कुछ और पुराने दोस्तों के भी नाम
काट दिए गए थे
अब उनकी दरकार तुम्हें नहीं रह गई थी
अब तुम्हारे नए दोस्त बन रहे थे
अजब-ग़ज़ब क़िस्म के लोग
मैं कहीं भी रहूँ चाहे प्रधानमंत्री निवास में
या लेफ़्टिनेंट गवर्नर के महल में या अकबर रोड के बंगले में
दिल तो मेरा वामपंथ के साथ हइए है...
यह ख़ास तरह का कॉकटेली वामपंथ था
इसमें घुसने के बाद बाहर निकलना
लगभग असंभव
संगठन और संगठित कार्रवाई का प्रबल निषेध
इसकी ख़ास पहचान
तुम्हारी दुनिया अलग तरह की हो चली थी
जहाँ मेरा प्रवेश वर्जित था
तुम्हारी दुनिया और मेरी दुनिया के बीच
संपर्क सूत्र नदारद था
यह antagonism भला आया कहाँ से?
कौन था इसका सूत्रधार?
मैं तुम पर फ़ैसला नहीं सुना रहा पंकज
कवि को वकील या जज बनने से बचना चाहिए
नहीं तो उसकी कविता का विनाश सुनिश्चित है
मैं सिर्फ़ यह कहना चाहता हूँ
कि दोस्तियाँ जो निश्छल और निर्दोष हुआ करती थीं
उन्हें हम क्यों नहीं बचा पाए
बीसवीं शताब्दी के आख़िरी चालीस सालों में
शुरू हुई दोस्ती
इक्कीसवीं शताब्दी में भी तो जारी रह सकती थी
मेरी बच्ची की पैदाइश के ठीक एक दिन पहले
मुझसे मिलने
जिस तरह तुम पद्याशा झा के साथ
मेरे घर—दयानंद कालोनी, लाजपतनगर-4, नई दिल्ली—की
बरसाती में अचानक आए
उसी तरह आगे भी मिलना-जुलना
क्यों नहीं जारी रखा जा सका
हालत यही हो गई है
तुम किसी के साथ सालों-साल गहन अंतरंग रिश्ते में रहो
और एक दिन सहसा घोषणा होती है
उसने तुम्हें अपनी ज़िंदगी से निकाल बाहर फेंका
ऐसा क्यों तुम्हारे दूसरे कविता-संग्रह की समीक्षा
मैं न लिखूँ इसके लिए
तुमने एक पत्रिका के संपादक पर दबाव बनाया
ऐसी क्या बात थी पंकज
किस बात का डर था तुम्हें
क्या तुम्हें मुझसे असुरक्षा महसूस होती थी?
जब तुम मरे दिल्ली में
मैं लखनऊ में था
तुम्हें आख़िरी सलाम पेश न कर सका
इसका अफ़सोस बना रहेगा
थे तो हम दोनों दोस्त
पुरानी नष्ट हो चुकी दुनिया के सहयात्री
बेशक अच्छे-ख़ासे फ़ासले के साथ...
- पुस्तक : पहल-123 (पृष्ठ 32)
- संपादक : ज्ञानरंजन
- रचनाकार : अजय सिंह
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