फ़्रीदा काहलो
frida kahlo
एक
यह नरमुंड
जिससे
खेल रही है वह
उसका अपना है
इस हाथ छोड़ती उसे
एक चित्र में
लपक रही है वह
उसे
दूसरे हाथ
दूसरे चित्र में
भीड़ लग गई है
एज़टेक देवताओं की
उसे देखने
खेलता
वह चिढ़ा रही है
मातृ-देवी को
वह उकसा रही है
कुल-देवों को
यह जो बिखेर रही है वह
अपना रक्त
चित्र-दर-चित्र
उसे ख़ुद ही पीना है
देवों को नहीं
देने वाली वह
एक भी बूँद
यही उसका दुराग्रह है
किंचन-सा
यह नरमुंड एक
गेंद है दुख की
गेंद है अ-दुख की
अटकाना चाहती है इसे वह
भूखे देवों के
कंठ में
दो
एक ही वाक्य लिखती है वह जीवन-भर।
अपने चित्रों पर। टूटे मेरुदंड पर। अपने बच्चे के शव पर। ज्यों-ज्यों वह वाक्य
लिखती जाती है, उसकी अँगूठियाँ बड़ी हो जाती हैं और पोशाकें भव्य। भीड़
लग जाती है कैलिफ़ोर्निया की सड़कों पर। कोई नहीं जानता वह तन्मय है अपना
एकमात्र वाक्य लिखने में।
एक बार यहाँ से जाकर मैं फिर लौटना नहीं चाहती।
यह एक वाक्य है, जिसे वह सही-सही, हर हिज्जे और मात्रा में, सिर्फ़ आख़िरी
रात लिख पाती है।
तीन
मृत्यु उसके कैनवास से बाहर है कि भीतर, कुछ पता नहीं। मृत्यु उसके साथ
खड़ी देख रही है उसको, या कि झाँक रही है उसके चित्र में से उसे, कुछ पता
नहीं। वह जो भी चित्र रहती है, मृत्यु लेट जाती है जाकर उसमें। अगर वह
हटाती है उसे, तो मृत्यु लेटा देती है वहाँ उसे।
यह एक खेल है जो वे दोनों खेलती हैं। अनंत चित्रों में। छाया-बहनें।
- पुस्तक : अँधेरे में बुद्ध (पृष्ठ 107)
- रचनाकार : गगन गिल
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1996
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