हम ज्योति पुंज दुर्दम, प्रचंड,
हम क्रांति-वज्र के घन प्रहार,
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
हम गरज उठे कर घोर नाद,
हम कड़क उठे, हम कड़क उठे,
अंबर में छायी ध्वनि-ज्वाला,
हम भड़क उठे, हम भड़क उठे!
हम वज्रपाणि हम कुलिश हृदय,
हम दृढ़ निश्चय, हम अचल, अटल
हम महाकाल के व्याल रूप,
हम शेषनाग के अतुल गरल!
हम दुर्गा के भीषण नाहर,
हम सिंह-गर्जना के प्रसार
हम जनक प्रलय-रण-चंडी के,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
हमने गति देकर चलित किया
इन गतिविहीन ब्रह्मांडों को,
हमने ही तो है सृजित किया
रज के इन वर्तुल भांडों को;
हमने नव-सृजन-प्रेरणा से
छिटकाये तारे अंबर में,
हम ही विनाश भर आए हैं
इस निखिल विश्व-आडंबर में;
हम स्रष्टा हैं, प्रलयंकर हम,
हम सतत क्रांति की प्रखर धार—
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
हमने अपने मन में की ‘हाँ!'
औ' प्रकृति नर्तकी नाच उठी!
हमने अपने मन में की 'ना!'
औ' महाप्रलय की आँच उठी!
जग डग-मग-डग-मग होता है
अपने इन भृकुटि-विलासों से,
सिरजन, विनाश, होने लगते
इन दायीं-बायीं श्वासों से;
हम चिर विजयी; कर सका कौन
हठ ठान हमारा प्रतीकार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
अपने शोणित से ऊषा को
हम दे आये कुंकुम-सुहाग,
आदर्शों के उद्दीपन से
हमने रवि को दी अमित आग;
माटी भी उन्नत-ग्रीव हुई
जब नव चेतनता उठी जाग,
जीवन-रँग फैला, जब हमने
खेली प्राणों की रक्त फाग;
हो चला हमारे इंगित पर
जग में नव जीवन का प्रसार,
हम जनक प्रलय-रण-चंडी के,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
हो गयी सृजित संगीत कला,
हमने जो छेड़ी नवल तान
उन्मुक्त हो गये भाव-विहग
जो भरी एक हमने उड़ान;
हमने समुद्र-मंथन करके
भर दिये जगत् में अतुल रत्न,
संसृति को चेरी कर लाये
अनवरत हमारे ये प्रयत्न!
संस्कृति उभरी, लालित्य जगा,
सुन पड़ी सभ्यता की पुकार,
जब विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
बढ़ चले मार्ग पर दुर्निवार!
हम 'अग्ने! नय सुपथा राये...' का
अनल-मंत्र कह जाग उठे,
हम मोह, लोभ, भय, त्रास, छोह
सब त्याग उठे, सब त्याग उठे,
हम आज देखते हैं जगती,
यह जगती, यह अपनी जगती,—
यह भूमि हमारी विनिर्मिता,
शोषिता, परायी-सी लगती!
रवि-निर्माताओं के भू पर,
बोलो, यह कैसा अंधकार?
क्या निद्रित थे हम अति कोही,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
क्या अंधकार? हाँ अंधकार!
याँ अंधकार!! वाँ अंधकार!!
है आज सभी दिशि अंधकार;
हैं सभी दिशा के बंद द्वार;
ज्योतिष्पुंजों के हम स्रष्टा,
हम अनल-मंत्र के छंद-कार,
इस दुर्दम तम को क्यों न दलें?
हम सूर्य-कार, हम चंद्र-कार!
आओ, हम सब मिलकर नभ से
ले आएँ रवि-शशि को उतार!!!
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
चेतन ने जब विद्रोह किया,
तब जड़ता में जीवन आया;
जीवन ने जब विद्रोह किया
तब चमक उठी कंचन-काया;
यह जो विकास, उत्क्रमण, प्रगति,
प्रकटी जीवन के हिय-तल में,—
वह है केवल विद्रोह छटा
जो खिल उठती है पल-पल में!
तब, बोलो, हम क्यों सहन करें
दुर्दांत तिमिर का अनाचार ?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
हम खंड-खंड कर चुके गर्व
अतुलित मदमत्त करोड़ों का;
है इतिहासों को याद हमारा
भीम प्रहार हथौड़ों का!
आ चुके अभी तक कई-कई
घनघोर सूरमा बड़े-बड़े,
जा लखो, हमारे प्रांगण में
उनके हैं बस कुछ ढूह खड़े!
है इतिहासों को भी दूभर
उनके साम्राज्यों का विचार,
उनके आगे टिक सका कौन,
जो हैं विद्रोही दुर्निवार!
हमने संस्कृति का सृजन किया,
दुष्कृतियों को विध्वस्त किया,
कुविचारों के चढ़ते रवि को
इक ठोकर देकर अस्त किया!
हम काल-मेघ बन मँडराये,
हम अशनि-कुलिश बन-बन गरजे,
सुन-सुन घनघोर निनाद भीम
अत्याचारी जन-गण लरजे;
अब आज, निराशा-तिमिर देख,
लरजेंगे क्या हम क्रांतिकार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
सोचो तो कितना अहोभाग्य,—
आ पड़ा हमीं पर क्रांति-भार!
इस अटल ऐतिहासिकता पर,
हम क्यों न आज होएँ निसार?
यह क्रांति-काल, संक्रांति-काल,
यह संधि-काल युग-घड़ियों का,
हाँ! हमीं करेंगे गठ-बंधन,
युग-जंज़ीरों की कड़ियों का!
हम क्यों उदास? हों क्यों निराश?
जब सम्मुख हैं पुरुषार्थ-सार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
हम घर से निकले हैं गढ़ने
नव चंद्र, सूर्य, नव-नव अंबर,
नव वसुंधरा, नव जन-समाज
नव राज-काज, नव काल, प्रहर!
दिक्-काल नए, दिक्-पाल नए,
सब ग्वाल नए, सब बाल नए,
हम सिरजेंगे ब्रज भूमि नई,
गोपियाँ नई, गोपाल नए!!
क्यों आज अलस-भावना जगे,
जब आये हम हिय धैर्य धार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
मानव को नयी सुगति देने,
मानवता को उन्नत करने
हम आये हैं नर के हिय में,
नारायणता की द्युति भरने;
यह अति पुनीत, यह गुणातीत,
शुभ कर्म हमारे सम्मुख है;
तब नीच निराशा यह कैसी?
कैसा संभ्रम? अब क्या दुख है?
तिल-तिल करके यदि प्राण जायँ
तब भी क्यों हो हिय में विकार?
हम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
यह काल, लौह लेखनी लिये,
लिखता जाता है युग पुराण;
हम सबकी कृति-निष्कृतियों का
उसको रहता है ख़ूब ध्यान;
इस ध्रुव इतिहास-सुलेखक को
कैसे धोका दें हम, भाई?
इससे बचने का, अपने को
कैसे मौक़ा दें, हम भाई?
मौक़ेबाज़ी न चलेगी याँ,
यह ख़ाला का घर नहीं; यार,
है महाकाल निर्दय लेखक,
यह है विद्रोही दुर्निवार।
यह काल, लेखनी डुबो रहा
अमरों की शुभ शोणित-मसि में,
औ' उधर चढ़ रहा है पानी
उन निर्मम बधिकों की असि में!
क्यों सोचें, कब कुंठित होगी,
निर्दय, असि की यह प्रखर धार?
बचने की क्यों हो आतुरता?
क्यों टूटे यह बलि की क़तार?
यदि हम डूबें इस मृत्यु-घाट,
तो पहुँचेंगे उस अमर पार!
क्या भय? क्या शोक-विषाद हमें?
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
हम रहे न भय के दास कभी
हम नहीं मरण के चरण-दास;
हमको क्यों विचलित करे आज
यह हेय प्राण-अपहरण-त्रास?
माना कि लग रहा है ऐसा,
मानो प्रकाश है बहुत दूर,
तो क्या इस दुश्चिंता ही से
होगा तम का गढ़ चूर-चूर?
हम क्यों न करें विश्वास कि यह
टिक नहीं सकेगा तम अपार?
हम महा प्राण, हम इक उठान,
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
अपने ये सब बीहड़ जंगल,
अपने ये सब ऊँचे पहाड़,—
इक दिन निश्चय हिल डोलेंगे,
सिंहों की-सी करके दहाड़!
उस दिन हम विस्मित देखेंगे
यह निविड़ तिमिर होते विलीन,
उस दिन हम सस्मित देखेंगे :
हम हैं अदीन, हम शक्ति-पीन!!
उस दिन दुःस्वप्नों की स्मृति-सा
होगा बधिकों का भीम भार
उस दिवस कहेगा जग हमसे :
तुम विद्रोही, तुम दुर्निवार!
हम क्यों न करें विश्वास कि ये
नंगे-भूखे भी तड़पेंगे?
धूएँ के छितरे बादल भी,
कड़केंगे, हाँ ये कड़केंगे!
जमकर होंगे ये भी संयुत,
ये भी बिजलियाँ गिराएँगे :
अपने नीचे की धरती का
ये भी संताप सिराएँगे;
ये भी तो इक दिन समझेंगे
अपने भूले सब स्वाधिकार;
उस दिन ये सब कह उठेंगे :
हम विद्रोही, हम दुर्निवार!
हम कहते हैं भीषण स्वर से
मत सोच करो, मत सोच करो;
लख वर्तमान नैराश्य अगम,
अपने हिय को मत पोच करो;
तुम बहुदर्शी, तुम क्रांति-पथी,
तुम जागरूक, तुम गुडाकेश,
तुमको कर सका कभी विचलित
क्या गेह-मोह? क्या शोक-क्लेश?
देखी है तुमने क्षणिक जीत,
अविचल सह जाओ क्षणिक हार!
तुम विप्लव-रण-चंडिका-जनक,
तुम विद्रोही, तुम दुर्निवार!!
hum jyoti punj durdam, prchanD,
hum kranti wajr ke ghan prahar,
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
hum garaj uthe kar ghor nad,
hum kaDak uthe, hum kaDak uthe,
ambar mein chhayi dhwani jwala,
hum bhaDak uthe, hum bhaDak uthe!
hum wajrapanai hum kulish hirdai,
hum driDh nishchay, hum achal, atal
hum mahakal ke wyal roop,
hum sheshanag ke atul garal!
hum durga ke bhishan nahar,
hum sinh garjana ke prasar
hum janak prlay ran chanDi ke,
hum widrohi, hum durniwar!
hamne gati dekar chalit kiya
in gatiwihin brahmanDon ko,
hamne hi to hai srijit kiya
raj ke in wartul bhanDon ko;
hamne naw srijan prerna se
chhitkaye tare ambar mein,
hum hi winash bhar aaye hain
is nikhil wishw aDambar mein;
hum srashta hain, pralyankar hum,
hum satat kranti ki prakhar dhaar—
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
hamne apne man mein ki ‘han!
au prakrti nartki nach uthi!
hamne apne man mein ki na!
au mahapralay ki anch uthi!
jag Dag mag Dag mag hota hai
apne in bhrikuti wilason se,
sirjan, winash, hone lagte
in dayin bayin shwason se;
hum chir wijyi; kar saka kaun
hath than hamara partikar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
apne shonait se usha ko
hum de aaye kunkum suhag,
adarshon ke uddipan se
hamne rawi ko di amit aag;
mati bhi unnat greew hui
jab naw chetanta uthi jag,
jiwan rang phaila, jab hamne
kheli pranon ki rakt phag;
ho chala hamare ingit par
jag mein naw jiwan ka prasar,
hum janak prlay ran chanDi ke,
hum widrohi, hum durniwar!
ho gayi srijit sangit kala,
hamne jo chheDi nawal tan
unmukt ho gaye bhaw wihag
jo bhari ek hamne uDan;
hamne samudr manthan karke
bhar diye jagat mein atul ratn,
sansriti ko cheri kar laye
anawrat hamare ye prayatn!
sanskriti ubhri, lality jaga,
sun paDi sabhyata ki pukar,
jab wiplaw ran chanDika janak,
baDh chale marg par durniwar!
hum agne! nay suptha raye ka
anal mantr kah jag uthe,
hum moh, lobh, bhay, tras, chhoh
sab tyag uthe, sab tyag uthe,
hum aaj dekhte hain jagti,
ye jagti, ye apni jagti,—
ye bhumi hamari winirmita,
shoshita, parayi si lagti!
rawi nirmataon ke bhu par,
bolo, ye kaisa andhkar?
kya nidrit the hum ati kohi,
hum widrohi, hum durniwar!
kya andhkar? han andhkar!
yan andhkar!! wan andhkar!!
hai aaj sabhi dishi andhkar;
hain sabhi disha ke band dwar;
jyotishpunjon ke hum srashta,
hum anal mantr ke chhand kar,
is durdam tam ko kyon na dalen?
hum surya kar, hum chandr kar!
ao, hum sab milkar nabh se
le ayen rawi shashi ko utar!!!
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
chetan ne jab widroh kiya,
tab jaDta mein jiwan aaya;
jiwan ne jab widroh kiya
tab chamak uthi kanchan kaya;
ye jo wikas, utkramn, pragti,
prakti jiwan ke hiy tal mein,—
wo hai kewal widroh chhata
jo khil uthti hai pal pal mein!
tab, bolo, hum kyon sahn karen
durdant timir ka anachar ?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
hum khanD khanD kar chuke garw
atulit madmatt karoDon ka;
hai itihason ko yaad hamara
bheem prahar hathauDon ka!
a chuke abhi tak kai kai
ghanghor surma baDe baDe,
ja lakho, hamare prangan mein
unke hain bus kuch Dhooh khaDe!
hai itihason ko bhi dubhar
unke samrajyon ka wichar,
unke aage tik saka kaun,
jo hain widrohi durniwar!
hamne sanskriti ka srijan kiya,
dushkritiyon ko widhwast kiya,
kuwicharon ke chaDhte rawi ko
ik thokar dekar ast kiya!
hum kal megh ban manDraye,
hum ashni kulish ban ban garje,
sun sun ghanghor ninad bheem
atyachari jan gan larje;
ab aaj, nirasha timir dekh,
larjenge kya hum krantikar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
socho to kitna ahobhagya,—
a paDa hamin par kranti bhaar!
is atal aitihasikta par,
hum kyon na aaj hoen nisar?
ye kranti kal, sankranti kal,
ye sandhi kal yug ghaDiyon ka,
han! hamin karenge gath bandhan,
yug janziron ki kaDiyon ka!
hum kyon udas? hon kyon nirash?
jab sammukh hain purusharth sar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
hum ghar se nikle hain gaDhne
naw chandr, surya, naw naw ambar,
naw wasundhra, naw jan samaj
naw raj kaj, naw kal, prahar!
dik kal nae, dik pal nae,
sab gwal nae, sab baal nae,
hum sirjenge braj bhumi nai,
gopiyan nai, gopal nae!!
kyon aaj alas bhawna jage,
jab aaye hum hiy dhairya dhaar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
manaw ko nayi sugti dene,
manawta ko unnat karne
hum aaye hain nar ke hiy mein,
narayanta ki dyuti bharne;
ye ati punit, ye gunatit,
shubh karm hamare sammukh hai;
tab neech nirasha ye kaisi?
kaisa sambhram? ab kya dukh hai?
til til karke yadi paran jayan
tab bhi kyon ho hiy mein wikar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
ye kal, lauh lekhani liye,
likhta jata hai yug puran;
hum sabki kriti nishkritiyon ka
usko rahta hai khoob dhyan;
is dhruw itihas sulekhak ko
kaise dhoka den hum, bhai?
isse bachne ka, apne ko
kaise mauqa den, hum bhai?
mauqebazi na chalegi yan,
ye khala ka ghar nahin; yar,
hai mahakal nirday lekhak,
ye hai widrohi durniwar
ye kal, lekhani Dubo raha
amron ki shubh shonait masi mein,
au udhar chaDh raha hai pani
un nirmam badhikon ki asi mein!
kyon sochen, kab kunthit hogi,
nirday, asi ki ye prakhar dhaar?
bachne ki kyon ho aturta?
kyon tute ye bali ki qatar?
yadi hum Duben is mirtyu ghat,
to pahunchenge us amar par!
kya bhay? kya shok wishad hamein?
hum widrohi, hum durniwar!
hum rahe na bhay ke das kabhi
hum nahin marn ke charn das;
hamko kyon wichlit kare aaj
ye hey paran apharn tras?
mana ki lag raha hai aisa,
mano parkash hai bahut door,
to kya is dushchinta hi se
hoga tam ka gaDh choor choor?
hum kyon na karen wishwas ki ye
tik nahin sakega tam apar?
hum maha paran, hum ek uthan,
hum widrohi, hum durniwar!
apne ye sab bihaD jangal,
apne ye sab unche pahaD,—
ik din nishchay hil Dolenge,
sinhon ki si karke dahaD!
us din hum wismit dekhenge
ye niwiD timir hote wilin,
us din hum sasmit dekhenge ha
hum hain adin, hum shakti peen!!
us din duःswapnon ki smriti sa
hoga badhikon ka bheem bhaar
us diwas kahega jag hamse ha
tum widrohi, tum durniwar!
hum kyon na karen wishwas ki ye
nange bhukhe bhi taDpenge?
dhuen ke chhitre badal bhi,
kaDkenge, han ye kaDkenge!
jamkar honge ye bhi sanyut,
ye bhi bijliyan girayenge ha
apne niche ki dharti ka
ye bhi santap sirayenge;
ye bhi to ek din samjhenge
apne bhule sab swadhikar;
us din ye sab kah uthenge ha
hum widrohi, hum durniwar!
hum kahte hain bhishan swar se
mat soch karo, mat soch karo;
lakh wartaman nairashy agam,
apne hiy ko mat poch karo;
tum bahudarshi, tum kranti pathi,
tum jagaruk, tum guDakesh,
tumko kar saka kabhi wichlit
kya geh moh? kya shok klesh?
dekhi hai tumne kshanaik jeet,
awichal sah jao kshanaik haar!
tum wiplaw ran chanDika janak,
tum widrohi, tum durniwar!!
hum jyoti punj durdam, prchanD,
hum kranti wajr ke ghan prahar,
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
hum garaj uthe kar ghor nad,
hum kaDak uthe, hum kaDak uthe,
ambar mein chhayi dhwani jwala,
hum bhaDak uthe, hum bhaDak uthe!
hum wajrapanai hum kulish hirdai,
hum driDh nishchay, hum achal, atal
hum mahakal ke wyal roop,
hum sheshanag ke atul garal!
hum durga ke bhishan nahar,
hum sinh garjana ke prasar
hum janak prlay ran chanDi ke,
hum widrohi, hum durniwar!
hamne gati dekar chalit kiya
in gatiwihin brahmanDon ko,
hamne hi to hai srijit kiya
raj ke in wartul bhanDon ko;
hamne naw srijan prerna se
chhitkaye tare ambar mein,
hum hi winash bhar aaye hain
is nikhil wishw aDambar mein;
hum srashta hain, pralyankar hum,
hum satat kranti ki prakhar dhaar—
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
hamne apne man mein ki ‘han!
au prakrti nartki nach uthi!
hamne apne man mein ki na!
au mahapralay ki anch uthi!
jag Dag mag Dag mag hota hai
apne in bhrikuti wilason se,
sirjan, winash, hone lagte
in dayin bayin shwason se;
hum chir wijyi; kar saka kaun
hath than hamara partikar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
apne shonait se usha ko
hum de aaye kunkum suhag,
adarshon ke uddipan se
hamne rawi ko di amit aag;
mati bhi unnat greew hui
jab naw chetanta uthi jag,
jiwan rang phaila, jab hamne
kheli pranon ki rakt phag;
ho chala hamare ingit par
jag mein naw jiwan ka prasar,
hum janak prlay ran chanDi ke,
hum widrohi, hum durniwar!
ho gayi srijit sangit kala,
hamne jo chheDi nawal tan
unmukt ho gaye bhaw wihag
jo bhari ek hamne uDan;
hamne samudr manthan karke
bhar diye jagat mein atul ratn,
sansriti ko cheri kar laye
anawrat hamare ye prayatn!
sanskriti ubhri, lality jaga,
sun paDi sabhyata ki pukar,
jab wiplaw ran chanDika janak,
baDh chale marg par durniwar!
hum agne! nay suptha raye ka
anal mantr kah jag uthe,
hum moh, lobh, bhay, tras, chhoh
sab tyag uthe, sab tyag uthe,
hum aaj dekhte hain jagti,
ye jagti, ye apni jagti,—
ye bhumi hamari winirmita,
shoshita, parayi si lagti!
rawi nirmataon ke bhu par,
bolo, ye kaisa andhkar?
kya nidrit the hum ati kohi,
hum widrohi, hum durniwar!
kya andhkar? han andhkar!
yan andhkar!! wan andhkar!!
hai aaj sabhi dishi andhkar;
hain sabhi disha ke band dwar;
jyotishpunjon ke hum srashta,
hum anal mantr ke chhand kar,
is durdam tam ko kyon na dalen?
hum surya kar, hum chandr kar!
ao, hum sab milkar nabh se
le ayen rawi shashi ko utar!!!
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
chetan ne jab widroh kiya,
tab jaDta mein jiwan aaya;
jiwan ne jab widroh kiya
tab chamak uthi kanchan kaya;
ye jo wikas, utkramn, pragti,
prakti jiwan ke hiy tal mein,—
wo hai kewal widroh chhata
jo khil uthti hai pal pal mein!
tab, bolo, hum kyon sahn karen
durdant timir ka anachar ?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
hum khanD khanD kar chuke garw
atulit madmatt karoDon ka;
hai itihason ko yaad hamara
bheem prahar hathauDon ka!
a chuke abhi tak kai kai
ghanghor surma baDe baDe,
ja lakho, hamare prangan mein
unke hain bus kuch Dhooh khaDe!
hai itihason ko bhi dubhar
unke samrajyon ka wichar,
unke aage tik saka kaun,
jo hain widrohi durniwar!
hamne sanskriti ka srijan kiya,
dushkritiyon ko widhwast kiya,
kuwicharon ke chaDhte rawi ko
ik thokar dekar ast kiya!
hum kal megh ban manDraye,
hum ashni kulish ban ban garje,
sun sun ghanghor ninad bheem
atyachari jan gan larje;
ab aaj, nirasha timir dekh,
larjenge kya hum krantikar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
socho to kitna ahobhagya,—
a paDa hamin par kranti bhaar!
is atal aitihasikta par,
hum kyon na aaj hoen nisar?
ye kranti kal, sankranti kal,
ye sandhi kal yug ghaDiyon ka,
han! hamin karenge gath bandhan,
yug janziron ki kaDiyon ka!
hum kyon udas? hon kyon nirash?
jab sammukh hain purusharth sar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
hum ghar se nikle hain gaDhne
naw chandr, surya, naw naw ambar,
naw wasundhra, naw jan samaj
naw raj kaj, naw kal, prahar!
dik kal nae, dik pal nae,
sab gwal nae, sab baal nae,
hum sirjenge braj bhumi nai,
gopiyan nai, gopal nae!!
kyon aaj alas bhawna jage,
jab aaye hum hiy dhairya dhaar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
manaw ko nayi sugti dene,
manawta ko unnat karne
hum aaye hain nar ke hiy mein,
narayanta ki dyuti bharne;
ye ati punit, ye gunatit,
shubh karm hamare sammukh hai;
tab neech nirasha ye kaisi?
kaisa sambhram? ab kya dukh hai?
til til karke yadi paran jayan
tab bhi kyon ho hiy mein wikar?
hum wiplaw ran chanDika janak,
hum widrohi, hum durniwar!
ye kal, lauh lekhani liye,
likhta jata hai yug puran;
hum sabki kriti nishkritiyon ka
usko rahta hai khoob dhyan;
is dhruw itihas sulekhak ko
kaise dhoka den hum, bhai?
isse bachne ka, apne ko
kaise mauqa den, hum bhai?
mauqebazi na chalegi yan,
ye khala ka ghar nahin; yar,
hai mahakal nirday lekhak,
ye hai widrohi durniwar
ye kal, lekhani Dubo raha
amron ki shubh shonait masi mein,
au udhar chaDh raha hai pani
un nirmam badhikon ki asi mein!
kyon sochen, kab kunthit hogi,
nirday, asi ki ye prakhar dhaar?
bachne ki kyon ho aturta?
kyon tute ye bali ki qatar?
yadi hum Duben is mirtyu ghat,
to pahunchenge us amar par!
kya bhay? kya shok wishad hamein?
hum widrohi, hum durniwar!
hum rahe na bhay ke das kabhi
hum nahin marn ke charn das;
hamko kyon wichlit kare aaj
ye hey paran apharn tras?
mana ki lag raha hai aisa,
mano parkash hai bahut door,
to kya is dushchinta hi se
hoga tam ka gaDh choor choor?
hum kyon na karen wishwas ki ye
tik nahin sakega tam apar?
hum maha paran, hum ek uthan,
hum widrohi, hum durniwar!
apne ye sab bihaD jangal,
apne ye sab unche pahaD,—
ik din nishchay hil Dolenge,
sinhon ki si karke dahaD!
us din hum wismit dekhenge
ye niwiD timir hote wilin,
us din hum sasmit dekhenge ha
hum hain adin, hum shakti peen!!
us din duःswapnon ki smriti sa
hoga badhikon ka bheem bhaar
us diwas kahega jag hamse ha
tum widrohi, tum durniwar!
hum kyon na karen wishwas ki ye
nange bhukhe bhi taDpenge?
dhuen ke chhitre badal bhi,
kaDkenge, han ye kaDkenge!
jamkar honge ye bhi sanyut,
ye bhi bijliyan girayenge ha
apne niche ki dharti ka
ye bhi santap sirayenge;
ye bhi to ek din samjhenge
apne bhule sab swadhikar;
us din ye sab kah uthenge ha
hum widrohi, hum durniwar!
hum kahte hain bhishan swar se
mat soch karo, mat soch karo;
lakh wartaman nairashy agam,
apne hiy ko mat poch karo;
tum bahudarshi, tum kranti pathi,
tum jagaruk, tum guDakesh,
tumko kar saka kabhi wichlit
kya geh moh? kya shok klesh?
dekhi hai tumne kshanaik jeet,
awichal sah jao kshanaik haar!
tum wiplaw ran chanDika janak,
tum widrohi, tum durniwar!!
- पुस्तक : स्वतंत्रता पुकारती (पृष्ठ 182)
- संपादक : नंद किशोर नवल
- रचनाकार : बालकृष्ण शर्मा नवीन
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2006
यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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