यहाँ बह रही हवा में अनन्य वास,
ज़रा-सी साँस तो ले देखो!
'दांते' को यह अनन्य या अज्ञात न थी, न थी पराई!
उसका भी वह प्रवास तो (सौभाग्यशाली!) नारकी था।
यहाँ है न हॉस्पिटल, न स्लाटर-हाउस, न शमशान,
फिर भी यहाँ हवा है उष्ण, म्लान!
खिलते यहाँ न फूल,
इसीलिए तो कभी-कभी उनकी होती है प्रदर्शनी,
जहाँ एक साथ पूरे साल भर की फसल प्रदर्शित की जाती है।
फिर भी यहाँ सारे मौसमों का लगता है पता, ज़रा भी ग़लती नहीं होती,
न फूलों से, न शीत से, न लू से;
किंतु स्मालपॉक्स, टाइफाइड, फ्लू से।
उगे हैं यों तो यहाँ भी (भूल से ही) कुछ वृक्ष,
व्यर्थ और विचित्र नहीं,
शायद इसी एक आशा से कि
अभी हुआ नहीं है सर्वनाश।
किंतु सर्व-संग का सुयोग पाकर ये हुए हैं
विरूप, रूक्ष, शून्य महफ़िल-से।
यहाँ वसंत-स्वर में विहंगवादक नहीं गूँजते,
(यहाँ कोई नहीं है मुक्त, सभी रहते हैं चिड़ियाघरों में)
सदा निःसहाय और लज्जित, किंतु छिपे कहाँ?
उन्हें मनुष्यों की भाँति पद प्राप्त नहीं,
यदि प्राप्त होते तो कब के ये चल दिए होते।
शिला, सीमेंट, लौह, काँच, कंक्रीट के समीप ये बौने ज़्यादा खटकते हैं।
यहाँ जानवर आवागमन न करे—ऐसा स्पष्ट नियम है।
उनके प्रति अपार सहानुभूति-स्नेह है, (तभी तो) ज़ू रचे हैं, म्यूज़ियम रचे है।
फिर भी यहाँ बह रही हवा में अनन्य वास।
यह हवा नहीं; ये अनगिनत निसाँस हैं,
जो इधर-उधर सदा घूमते हैं, नभ में और निर्गम में,
जिन्हें ट्राम के अनेक तारों का विशाल जाल ग्रसता है। कभी नहीं रुकता।
निसाँस? हाँ, असंख्य जनो का सिर्फ़ निसाँस,
जिनके साथ तीव्र आर्तता के न स्वर, न चीख़, और न टेर;
जिसे सुना था ज्येष्ठ पांडव ने ही एक बार,
वैसा कुछ भी यहाँ इस अनन्य तांडव में सुन नहीं पड़ता।
वाहन भी अवाक्, यहाँ मौन का विराट् रूपः शीत-शांत सर्व
गात्र में भी, स्वेदसिक्त;
अग्नि नहीं, तो भी धुआँ।
ये असंख्य कौन लोग हैं जो नित्य जाते हैं पंक्तिबद्ध?
क्या छत्ते पर पत्थर फेंका गया है कि सहस्रों मधुमक्खियाँ घूम रही हैं
क्रोध में?
या अपनी रानी के अदृश्य होने पर ये सदा उसी की खोज में लगी हैं?
अरे, यह क्या? सब ओर अँधेरा?
नेत्रों में से तेज विलीन होने लगा?
(लोग) एक-दूसरे के साथ कंधे-से-कंधा
रगड़ते हुए चले जा रहे हैं,
पर फिर भी न कप; स्पर्श से दो हृदयों के मध्य प्रेम-सेतु न निर्मित,
यद्यपि दो हृदय निकटतम।
समीप ही तार-घर में तो वह हज़ारों मीलों के बीच बन जाता है।
(लोगों के) हृदयों में अपार आर्द्रता है।
कुहासा छाया है, पर न आँधी, न तूफ़ान,
चित्त का वायुमान अब भी है मद।
ये सब किस ओर धँसे जा रहे हैं?
गति भी क्या संवेग है!!
तमिस्र लोक की ओर?
अभी सूर्य अस्त नहीं हुआ है, मंद-मंद पश्चिम में विलीन हो रहा है,
संध्या समय छाया लंबी होती है,
पर ये हैं कौन जिनकी छाया कभी पड़ती ही नहीं?
यों तो सूर्य की कभी नहीं पड़ती।
प्रकाश-बिंब, दर्पण पर नहीं, पत्थर पर गिरकर विलीन हो जाता है;
फिर कभी नहीं लौटता।
और पारदर्शक पर गिरकर सीधा आर-पार निकल जाता है ।
तो क्या ये स्वयं छायाएँ है?
सभी प्रेत हैं, जिनकी कायाएँ नहीं?
या फिर ये हैं सदेह, किंतु अपनी नग्नता वस्त्रों से निवारण नहीं करते,
पर सदा सुलभ स्व-छाया ही पहनते हैं।
मालूम होता है : सबका स्वभाव भिन्न है;
किसी के मुँह पर भाव नहीं,
किसी के क्षण-भर में अनेक प्रकार के भाव,
किसी के सदा ही एक-सा, अभिन्न भाव,
किंतु सर्व मौन, परस्पर भेद-हीन,
वारि-प्रवाह-सम, जिसे छुरी से भेदना संभव नहीं।
शतरंज के मोहरों-से, एक-सी चाल,
भले ही उनमें कोई सफ़ेद हो या लाल।
आकाश से पृथ्वी पर कोई अभ्र तो नहीं उतर आया
जो क्षण-क्षण में अपना आकार विविध प्रकार का, गोल, लब-गोल
बनाता है?
यह समग्र समूह शमशान-यात्रियों की भाँति बढ़ता जा रहा है,
सिर्फ़ पैरों की आवाज़, मुँह पर सभी गंभीर मौन धारण किए हुए;
मृत्यु का रहस्य इन्हें ज्ञात नहीं क्या?
न शोक, न विरोध का एक शब्द, मृत्यु को पवित्र, दुर्निवार मानते हैं?
किंतु कंधों पर लाश नहीं, फिर भी वज़न लगता है;
कोई संबंधी, स्वजन विदेह नहीं हुआ है।
परंतु हाँ, सुंदर, सुरम्य स्वप्न से भरा-पूरा
'आज' अतीत में फिसलकर विलुप्त हो गया है।
ये स्वयं अब भी जीवित हैं, बस, एक मात्र उसी की सबको प्रतीति है।
किंतु जन्म हुआ हो, या न भी हुआ हो—एक मात्र यही भय है।
इसीलिए सदा ये अपने साथ जन्म का प्रमाण-पत्र रखते हैं।
उनके पास और कोई संपत्ति नहीं;
यों तो इनमें परस्पर कोई समानता भी नहीं,
तब भी सबके उर में विषाद वारुणी है।
न निद्रा, न शांति, न हेतु, न शक्ति या स्वमान;
जीवन मानो अनंत करुण-कथा बना है।
क्या ये अधन्य हैं जिन्होंने कभी कहीं अधर्म का आचरण कर लिया है?
—घोर वासना एवं कुकर्म के कारण—ये यहाँ प्रचंड शोक-पावक में
आ गिरे हैं?
सदा यातना जलाती है, सब कुछ सहते हैं
ये दीन, पापत्रस्त, शोकग्रस्त, सर्व नामहीन
किसी का नाम ज्ञात नहीं,
पर एक बात निश्चित है—
किसी दिन लापता जहाज़ के मुसाफ़िरों की प्रसिद्ध होगी नामावली,
उसमें इनके भी होंगे नाम, यह समस्त धरा समुद्र में धँसेगी,
कभी-न-कभी यह विराट् विश्व-ग्रंथ समाप्त तो होगा,
निश्चय ही इनके भी नाम 'मुद्रण-भूल' में होंगे।
यह समस्त समूह स्वप्न में तो नही फिसला जा रहा?
इनका विचार करते-करते मैं अपना ही नाम भूला जाता हूँ;
यहाँ तो स्मृति असंभव,
यहाँ निरी विकृति,
मुझे ही मैं अज्ञात-सा लगता हूँ,
ध्यान नहीं रहता और पुकार उठता हूँ : निरंजन!!
कोई अर्थ नही; मात्र अक्षर, कुछ स्वर, कुछ व्यंजन;
सविस्मय प्रतीक्षा करता हूँ, उत्तर माँगता हूँ,
न स्वप्न, न जागृति,
अब रही नही धृति,
शब्द सुनाई देते हैं-“है, भरो!”
थोड़ी देर बाद फिर सुन पड़ता है–“दो कम करो!”
यहीं से कई बसें हैं छूटतीं,
फिर भी 'क्यू' कम नहीं होती;
मैं 'मुझको' पीछे छोड़, अचेत दूसरे फुटपाथ पर दौड़ जाता हूँ।
असंख्य लोगों के समूह की (चित्त की नहीं) भूतावलि में खो जाता हूँ!
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 242)
- रचनाकार : निरंजन भगत
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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