जंगल की पीठ पर ख़रगोश
jangal ki peeth par khargosh
कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह
Kumarendra Paarasnaath Singh
जंगल की पीठ पर ख़रगोश
jangal ki peeth par khargosh
Kumarendra Paarasnaath Singh
कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह
और अधिककुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह
एक छोटी-सी नदी है
जिसमें स्नान कर लेता हूँ
और जल भी उसी का पीता हूँ
जब प्यास लगती है।
किंतु बदले में उसने कभी कुछ नहीं माँगा।
उसी के किनारे
एक छोटा-सा गाँव है
जंगल की पीठ पर छलाँग
लगाते जा रहे ख़रगोश की तरह।
जहाँ पैदा हुआ,
बढ़ा,
और अब बच्चे मुझे दादा कहने लगे हैं—
उसका सूर्योदय देखने के लिए तरसता रहता हूँ,
कहीं और होता हूँ जब।
और एक छोटा-सा आँगन है
जहाँ एक छोटी-सी ही थाली में
सूर्यग्रहण देखा था एक दिन,
फिर चाँद और तारों को भी देखा हिलते जल में—
कितना अद्भुत था दृश्य वह!
कभी यह शिकायत नहीं की उसने
कि ऊपर आसमान तंग है।
वही आसमान
आज तंग पड़ने लगा है
आँगन कई-कई टुकड़ों में बँटा हुआ है
और दिन-पर-दिन
रेत में समाती जा रही है नदी भी।
- पुस्तक : कविता सदी (पृष्ठ 367)
- संपादक : सुरेश सलिल
- रचनाकार : कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2018
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