आज बहुत याद आ रही हैं
वे—
मेरे घर की औरतें
बहन
एक बहन थी छोटी
उस वक़्त की नीली आँखें याद आती हैं
ब्याह दी गई जल्दी ही
गौना नहीं हुआ था अभी
पति मर गया उसका
इक्कीसवीं सदी में
तेज़ी से विकासशील और परिवर्तनशील इस समाज में
ब्राह्मण की बेटी का नहीं होता दूसरा ब्याह
पिता, भाई, परिवार के रहम पर जीना था उसे
नियति के इस खेल को
बीते बारह सालों से झेल रही थी वह
अब मर गई
फाँसी पर झूलने के ठीक पहले
कौन-सा विचार आया होगा उसके मन में आख़िरी बार
क्या जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं रहा था
जिसके मोह ने उसे रोक लिया होता
मात्र तीस साल की उम्र में
क्या ऐसा कोई भी सुख नहीं था
जिसे याद कर उसे
जीने की इच्छा हुई होती
फिर एक बार
मौसी
बड़ी मौसी से सबको डर लगता था
कोई भरोसा नहीं था उनके मिज़ाज का
घर की छोटी-मोटी बातों में
सबसे अलग रखती थीं राय
मौसी अब नहीं रहीं
मौसी की मौत जल कर हुई थी
कहते हैं उस वक़्त घर में सब लोग छत पर सो रहे थे
सुबह चार बजे अकेले रसोई में क्या करने गई थीं मौसी
अगर पानी पीने के लिए उठी थीं
तो चूल्हा जलाने की क्या ज़रूरत आ पड़ी थी
क्या सच में मौसा तुम्हें छत पर न पाकर रसोई में आए थे
क्या सच में उनके हाथ आग बुझाने की कोशिश में जले थे...
आज बहुत बरस गुज़र गए
तुम्हारी मौत को भी ज़माने हुए
अपनी साफ़गोई
अपने प्रतिवादों की
क़ीमत चुकाई तुमने
दुनिया के आगे रोए नहीं अपने दुख
पति की शराबख़ोरी और बेवफ़ाई से लड़ती थीं अपने अंदर
और बाहर सबको लगता था
तुम उनसे झगड़ रही हो
तुमने जब देखा किसी स्त्री को उम्मीद से
हमेशा उसे पुत्रवती होने का दिया आशीर्वाद
तुम कहती थीं
लड़कियाँ क्या इसलिए पैदा हों
ताकि उन्हें पैदा होने के दुख
उठाने पड़ें
इस तरह
बुआ
सोलहवाँ साल
जब आईने को निहारते जाने को मन करता है
जब आँचल को सितारों से सजाने का मन करता है
जब पंख लग जाते हैं सपनों को
जो ख़ुद पर इतराने
सजने, सँवरने के दिन होते हैं
उन दिनों में सिंगार उतर गया था
बुआ का
गोद में नवजात बेटी को लेकर
धूसर हरे ओढ़ने में घर लौट आई थीं
फूफा की मौत के कारण जानना बेमानी हैं
बुआ बाल विधवा हुई थीं
यही सच था
वैधव्य का अकेलापन स्त्रियों को ही भोगना होता है
विधुर ताऊजी के लिए जल्दी ही मिल गई थी
नई-नवेली दुल्हन
बूढ़े पति को अपने कमसिन इशारों से साध लिया था उसने
इसलिए सारे घर की आँख की किरकिरी कहलाई
लेकिन लड़कियों से भरे ग़रीब घर में पैदा हुई
नई ताई ने शायद जल्दी ही सीख लिया था
जीवन में मिलने वाले दुखों को
कैसे नचाना है अपने इशारों पर
और कब ख़ुद नाचना है
नानी
अपने से दोगुनी उम्र के नाना को ब्याह कर लाई गई थीं नानी
ससुराल में उनसे बड़ी थी
उनकी बेटियों की उम्र
जब हमउम्र बेटे नानी को
माँ कह कर पुकारते थे
तो क्या कलेजे में
हाहाकार नहीं उठता होगा
कहते हैं हाथ छूट जाता था नाना का
बड़े ग़ुस्सैल थे नाना
समाज में बड़ा दबदबा था
जवानी में विधवा हो गई नानी
सारी उम्र ढोती रही नाना के दबदबे को
अपने कंधों पर
गालियों और ग़ुस्से को हथियार की तरह पहन लिया था उसने
मानो धूसर भूरी ओढ़नी
शृंगार-विहीनता और अभाव
कम पड़ते हों
अकेली स्त्री के यौवन को दुनिया की नज़रों से बचाने
और आत्मसम्मान के साथ जीने को
जवानी में बूढ़े पति
और बुढ़ापे में जवान बेटों के आगे लाचार रहीं तुम
छत से पैर फिसला तुम्हारा
फिर भी जीवन से मोह नहीं छूटा
अस्पताल में रहीं कोमा में पूरे एक महीने तक
आख़िर पोते के जन्म की ख़बर के साथ
मिला तुम्हारी मृत्यु का समाचार
मामी
कोई भी तो चेहरा नहीं याद आता ऐसा
जिस पर दुख की काली परछाइयाँ न हों
युवा मामी का झुर्रियों से भरा चेहरा देखती हूँ
तो याद आते हैं वे दिन
जब इनके रूप पर मोहित मामा
नहीं गए परदेस पैसा कमाने
बेरोज़गारी के दिनो में पैदा किए उन्होंने
सात बच्चे
चाची
चाची रेडियो नहीं सुनती हैं अब
नाचना तो जैसे जानती ही नहीं थीं कभी
पड़ोस के गाँव से
बड़े उल्लास के साथ लाई थीं दादी
सबसे छोटे लाड़ले बेटे के लिए
होनहार बहू
गाँव भर में चर्चा में होते थे
स्कूल में गाए उनके गाने और नाच
चाची
जो सब पर यक़ीन कर लेती थीं
अब सब तरफ़ लोग क़ातिल नज़र आते हैं
या दिखाई देते हैं उन्हें
साज़िशों में संलग्न
कहा था बड़े बाबा ने एक दिन
इस घर की औरतों के नसीब में नहीं हैं सुख
आज याद आ रही हैं वे सब
जिन्होंने अपने परिवार के पुरुषों के
सुखों के लिए लगाया अपना जीवन
और ढोती रहीं दुःख
अपने-अपने नसीब के
- रचनाकार : देवयानी भारद्वाज
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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