मैं बहुत नहीं बोलना चाहता था
समझना चाहता था कि कैसे एकांत बुन लेता है अपने शब्द
ठहरी हुई हवा के हाथों से कैसे गिरते हैं वाक्य
आत्मा के बहुत भीतर तक
कैसे सँभालते हैं क्रमबद्ध शब्द ख़ुद को
एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए
जैसे एक पक्षी आकाश में गोता लगाता हुआ धीरे-धीरे नीचे उतरता है
मैंने एक देह को हिला-डुला कर बताया
कि ठीक वैसे ही उतरना चाहिए अपने एकांत के तल पर
और जमाने चाहिए अपने पैर ठीक वैसे ही
जैसे पूर्वज जमा देते है ख़ुद को एक बीती हुई सदी में
बिना हिले दीवारों पर कोई भाषा कैसे उकेरी जा सकती है
या अपना आदिम चेहरा दीवार के किसी खुरदुरे हिस्से में कैसे ढूँढ़ा जा सकता है
सिखाया ख़ुद को!
बुद्ध और शंकर की अर्धतृप्त पर पूर्ण ध्यानस्थ आँखों का अभिनय करते-करते भी
दबे पाँव एक विराट मौन कैसे दबोच लेता है आत्मा के भागते पैरों को
कि एकांत एक अभ्यास है
जिसे बियाबान में बनी कोई भाएँ-भाएँ करती गुफा नहीं चाहिए
वह ख़ुद के भीतर बना एक कुआँ है जिसे हर बार थोड़ा और दुरुस्त और गहरा किया जाता है
'भीड़-शोर' अज्ञात का फैलाया हुआ एक जाल है
एकांत, ज्ञात की ओर निरंतर बढ़ता एक क़दम
मैंने ख़ुद को समझाया
कि अपने एकांत से बाहर आ कर
पहला शब्द
कुछ इस तरह बोलो
कि वह कानो में ऐसे उतरे जैसे चाय का एक गर्म घूँट उतरता है गले में
या ऐसे, जैसे निद्रालीन ब्रह्मांड के कानों में किसी अज्ञात ने फूँक दिया था
ओम!
मैं अपने एकांत से बाहर निकला तो थर-थर काँपता हुआ
और अपने पहले शब्द के लिए ठीक उतनी ही ताक़त लगाई
जितनी गर्भ से बाहर आया कोई नवजात लगाता है
अपने पहले रुदन के लिए!
- रचनाकार : वीरू सोनकर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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